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जन्म और प्रारंभिक शिक्षा

Monday, May 27, 2019

/ by Satyagrahi


मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्तूबर सन् 1869 को पोरबंदर में हुआ था। पोरबंदर, गुजरात कठियावड़ की तीन सौ में से एक रियासत थी। उनका जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था, जो कि जाति से वैश्य था। उनके दादा उत्तमचंद गांधी पोरबंदर के दीवान थे। आगे चलकर 1847 में उनके पिता करमचंद गांधी को पोरबंदर का दीवान घोषित किया गया। एक-एक करके तीन पत्नी की मृत्यु हो जाने पर करमचंद ने चौथा विवाह पुतलीबाई से किया, जिनकी कोख से गांधीजी ने जन्म लिया। मोहनदास की माँ का स्वभाव संतों के जैसा था। गांधीजी अपनी माँ के विचारों से खूब प्रभावित थे।


गांधीजी की आरंभिक शिक्षा पोरबंदर में हुई। जहाँ गणित विषय में उन्होंने अपने आपको काफी कमजोर पाया। कई वर्षों के बाद उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि वे झेंपू, शर्मीले और कम बुद्धि वाले छात्र हुआ करते थे। सात वर्ष की उम्र में उनका परिवार काठियावाड की अन्य रियासत राजकोट में आकर बस गया। यहाँ भी उनके पिता को दीवान बना दिया गया। यहाँ पर उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण की। बाद में हाईस्कूल में प्रवेश लिया। अब वे मध्यम श्रेणी के शांत, शर्मीले और झेंपू किस्म के छात्र बन चुके थे। एकांत उन्हें बहुत प्रिय था।


विद्यालय की गतिविधियाँ या परीक्षाओं के परिणाम से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला कि जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि वे भविष्य में महान बनेंगे। लेकिन विद्यालय में घटी एक घटना ने यह छिपा संदेश अवश्य दे डाला कि एक दिन यह छात्र आगे अवश्य जायेगा। हुआ यूं कि उस दिन स्कूल निरीक्षक विद्यालय में निरीक्षण के लिए आये हुए थे। कक्षा में उन्होंने छात्रों की 'स्पेलिंग टेस्ट` लेनी शुरू की। मोहनदास शब्द की स्पेलिंग गलत लिख रहे थे, इसे कक्षाध्यापक ने संकेत से मोहनदास को कहा कि वह अपने पड़ोसी छात्र की स्लेट से नकल कर सही शब्द लिखें। उन्होंने नकल करने से इंकार कर दिया। बाद में उन्हें उनकी इस 'मूर्खता` पर दंडित भी किया गया।

वैसे तो मोहनदास आज्ञाकारी थे, पर उनकी दृष्टी में जो अनुचित था, उसे वे उचित नहीं मानते थे। उनका परिवार वैष्णव धर्म का अनुयायी था। इस संप्रदाय में मांस भक्षण और धूम्रपान घोर पाप माने जाते थे। उन दिनों शेख महताब नाम का उनका एक सहपाठी था। महताब ने गांधीजी को यह विश्वास दिलाया कि अंग्रेज भारत पर इसलिए राज कर रहे हैं, क्योंकि वे गोश्त खाते हैं। उस छात्र के मुताबिक मांस ही अंग्रेजो की शक्ति का राज है। दोस्त के इस कुतर्कों ने मोहनदास को गोश्त खाने के लिए राजी कर लिया। देशभक्ति के कारण उन्होंने पहली बार मांस खाने के बाद वे पूरी रात सो नहीं सके। बार-बार उन्हें ऐसा लगता जैसे बकरा पेट में मिमिया रहा हो। लेकिन थोड़े-थोड़े फासलें पर वे मांस का सेवन करते रहे। माता-पिता को आघात पहुँचे इसलिए उन्होंने गोश्त खाना बंद कर दिया। वे शाकाहारी बन गये। इस उम्र में उन्होंने धूम्रपान और चोरी करने का भी अपराध किया। लेकिन बाद में रो कर पश्चाताप करते हुए उन्होंने सारी बुरी आदतों से किनारा कर लिया।

तेरह वर्ष की आयु में मोहनदास का विवाह उनकी हम-उम्र कस्तूरबा से कर दिया गया। उस उम्र के लड़के के लिए शादी का अर्थ नये वत्र, फेरे लेना और साथ में खेलने तक ही सीमित था। लेकिन जल्द ही उन पर काम का प्रभाव पड़ा। शायद इसी कारण उनके मन में बाल-विवाह के प्रति कठोर विचारों का जन्म हुआ। वे बाद में बाल-विवाह को भरत की एक भीषण बुराई मानते थे। एक दूसरे से कम उम्र में अनजान बच्चों का विवाह करना, आम रिवाज था और यह धारणा थी कि ऐसे विवाह प्रायः सुखी होते थे। कुछ भी हो, गांधीजी के बारे में ऐसा ही था। हालांकि बाद के वर्षों में उनकी अंतरात्मा बाल-विवाह को लेकर काफी कचोटती रहती थी, लेकिन उन्होंने आजीवन कस्तूरबा को एक आदर्श पत्नी के रूप में पाया।

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