Responsive Ad Slot

Latest

latest

आर्टिकल 15 : एक सवाल- फिल्म रिव्यु



फिल्म आर्टिकल-15 में तीन लड़कियों की कहानी 3 रुपयों से शुरू होती है और तीन पुलिसवालों की इर्द-गिर्द घूमती है। भारतीय संविधान की तीन मूल बातें- समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व जैसे तत्वों से भरा भारतीय संविधान आज भी देश के 98% लोगों को मालूम नहीं है।

असल में संविधान अपने आप में इतना पेचीदा है कि उसे समझना उसकी क्लिष्ट भाषा को अर्थ सहित पचा पाना और उसका इंटरप्रिटेशन कर पाना इस देश के सिर्फ 2% लोगों के ही बस में है। इसमें 1% कानून वाले हैं और दूसरा 1% पुलिस वाले हैं जो इसका दुरुपयोग करते हैं शेष 98% लोग इस किताब के चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं और एक तरह के संजाल में फंसे रहते हैं। 


फिल्म की कहानी समाज के यथार्थ को बयां करती है।



क्या कहती है फिल्म आर्टिकल 15? 


इसी संविधान का आर्टिकल 15 सिर्फ आर्टिकल नहीं, बल्कि इस देश के लोगों को बाबा साहब अंबेडकर द्वारा दिया गया एक बड़ा हथियार है, परंतु ना लोग इसे आज तक समझ पाए ना राज्य नामक व्यवस्था उन्हें किसी भी प्रकार की शक्तियां हस्तांतरित करने को तैयार है। आर्टिकल में लिखा है राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा - लेकिन जमीन पर यह स्थिति इसके उलट है।

फिल्म की कहानी में यही दिखाया गया है कि कैसे सीबीआई अफसर हो ब्रह्मदत्त जैसा पुलिस अधिकारी या कोई एससी नेता जो एक महंत के कंधों का सहारा लेकर अपनी ही जाति के लोगों को मरवाने का षडयंत्र कर रहा है। ठेकेदारों के साथ इन तीनों का गठजोड़ इतना स्ट्रॉन्ग है कि तीन लड़कियां मात्र 3 रुपये की मजदूरी बढ़ाने के लिए अपहृत कर ली जाती है और उनके साथ बुरी तरह से सामूहिक बलात्कार होता है।

सौभाग्य से एक लड़की भाग निकलने में कामयाब होती है परंतु अपनी किस्मत को रोते हुए ऐसे जंगल में जाकर धंस जाती है जहां 4 दिन से उसे खाने-पीने के लिए कुछ नहीं मिल रहा। दो लड़कियां ना मात्र सामूहिक रूप से बलत्कृत की जाती है बल्कि उनकी जाति को और पूरे समुदाय को जो तथाकथित रूप से पिछड़ा है और नीची जाति का है, को सबक सिखाने के लिए पेड़ पर टांग दिया जाता है गोया की इस तरह से कोई भी आगे से मजदूरी बढ़ाने के लिए मांग नहीं करेगा। 

फिल्म से हटकर कैसे हैं जमीन पर हालात? 


देश की वास्तविक स्थिति इससे ज्यादा खराब है। पिछले दिनों मैंने एक अंतरराष्ट्रीय संस्था के लिए छोटा सा शोध का कार्य किया था जहां मैंने देखा कि मप्र के कुक्षी मनावर क्षेत्रों में प्रभावशाली समुदाय और जाति के लोग इन आदिवासियों के छोटे बच्चों से कपास तुड़वाने का काम करवाते हैं। लगभग 6000 बच्चे बंधुआ मजदूर हैं और बदले में उन्हें 1 माह में 10 से 20 किलो अनाज देते हैं और घर के काम, जानवरों का गोबर, कूड़ा-कचरा उठाना, साथ ही खेती के भी सारे काम लगभग निशुल्क करवाते हैं। कई तरह से उनका शोषण किया जाता है। 

मंडला, डिंडोरी से लेकर बालाघाट, अलीराजपुर, झाबुआ, छिंदवाड़ा में यदि आर्टिकल 15 के संदर्भ में बात की जाए तो लगता है कि हम अभी आदिम युग में जी रहे हैं। जहां ना कोई व्यवस्था है, ना तंत्र, ना राजनीति। 

यह फिल्म समाज का आईना है 


फिल्म आर्टिकल-15 में एक युवा अधिकारी है जो दिल्ली से एक विभागीय सचिव के साथ में झगड़ कर आया है और उसका ईमानदाराना कन्फेशन है कि उसे पनिशमेंट के तहत एक पिछड़े इलाके में भेजा गया है, जहां उसे अब बरसों से बजबजाते तंत्र से जूझना है। इस तंत्र में विधायक है, धर्म है, महंत है , भगवा- हरे- नीले- पीले झंडे हैं, जातिवाद है, और पूरी सत्ता है।

दिल्ली का खौफ और मोबाइल के कनेक्शन जिनसे आजकल व्यवस्था चलती है, यह इतना बड़ा संजाल है कि देश का 70% वंचित तबका पूरी तरह से इसमें लगातार 72 वर्षों से फिसल रहा है; इस अफ़सर की बीवी है जो बेहद शालीन है और वह लगातार एक मोरल सपोर्ट के रूप में उस अफसर को नाममात्र काम करने के लिए प्रेरित करती है, बल्कि स्त्री होने के नाते सूझबूझ से दिशा दिखाने का काम करती है। 




फिल्म में दूसरी प्रेम कहानी गौरा और निषाद की है



फिल्म में दूसरी प्रेम कहानी गौरा और निषाद की है जो आमतौर पर आपको डकैत या नक्सलवादी प्रभावित इलाकों में देखने को मिल जाएगी। जहां प्रेमिका गांव में रहकर संघर्ष कर रही है और प्रेमी कहीं दूर बैठकर संगठित गिरोहों का सरगना है और सारे आंदोलन खुफिया तौर पर चलाता है। ये दोनों समुदाय में अपेक्षाकृत पढ़े-लिखे लोग हैं जो अपने अधिकारों को तो जानते हैं, प्रक्रियाओं को भी जानते हैं परंतु इनके बीच में फंसकर रह जाते हैं। इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है पर ज्यादा नहीं है, लेकिन यह संगठनों के झोल में उलझे रहते हैं और इनका अंत निश्चित ही किसी एनअकाउंटर में होता है।

जातिवाद के जहर को सामने लाती है फिल्म 


फिल्म में जाति को लेकर बहुत ज्यादा फोकस किया गया है क्योंकि जिस इलाके का पूरा वर्णन है जिस प्रांत विशेष की बात की गई है बहुत ही वह बहुत ही प्रतीकात्मक रूप से उल्लेखनीय है। शुरुआत में ही अफ़सर का ड्राइवर कहता है यह तिराहा आकर्षक है - जिसका एक रास्ता लखनऊ जाता है, एक अयोध्या जाता है और एक कश्मीर जाता है पर जय भीम और धर्म की जय के नारों में रास्ते खो जाते हैं और तरक्की कहीं खड़ी अपनी किस्मत पर अफसोस कर रही है।

अंत के दृश्य में जब पूरी व्यवस्थापिका अर्थात् पुलिस जो तीसरी लड़की को ढूंढने का काम करती है - भयानक दलदल में है। कीचड़ में सनी है- तब वह युवा अधिकारी अपने मातहतों से पूछता है कि आपने किस को वोट दिया- 10वीं 12वीं पास या हद से हद ग्रेजुएट पुलिस वाले अपनी समझ के हिसाब से जवाब देते हैं कि पंजा, फूल, साइकिल, लालटेन या मोमबत्ती या बहुत कंफ्यूज हो गए थे और जो हंसी अंत में पर्दे के साथ-साथ दर्शकों में फैलती है - वह घृणा ही नहीं, बल्कि वीभत्स रस का एक उदाहरण है जो हम सब के मुंह पर 70 साला कीचड़ का कालिख पोत कर जम जाता है एक झन्नाटेदार तमाचे की तरह।

दरअसल, आर्टिकल 15 एक फिल्म नहीं, बल्कि एक सवाल है- एक बड़ा सवाल जो व्यवस्था से है और जिसका खूबसूरत अंत जरूर है परंतु वह युवा अधिकारी जब सीबीआई के बुजुर्ग अधिकारी से कहता है कि "आप को हिंदी से बहुत प्यार है जबकि हिंदी आपकी पहली भाषा भी नहीं है और दिल्ली में यदि आप ना कह देंगे तो आपका खून हो जाएगा" फिल्म तो यहीं खत्म हो गई थी क्योंकि नायक जब सारे सबूत सीबीआई के अधिकारी को देकर कमरे से बाहर निकलता है परन्तु बाद में लड़की को ढूंढना और हैप्पी एंड करना तो दर्शकों को संतुष्ट करने जैसा है।


फिल्म बहुत प्रभावी तो नहीं लेकिन जरूरी सवाल उठाती है।


बहुत कुछ छूटता भी है फिल्म में 


वस्तुतः यह फिल्म भारतीय फिल्म समाज के इतिहास में एक तरह का मील का पत्थर तो नहीं परंतु वास्तविक दृश्य उन "लीचड़, गंदे और कलुषित लोगों" के बीच में दृश्याई जाने से थोड़ी सी अलग लगी है।थाने से लेकर पूरे शहर में हड़ताल के दौरान कचरा फेंकना एक तरह का रिबेलीयन व्यवहार है जो लेखक और निर्देशक पूरे स्वच्छता अभियान पर सवाल खड़ा करते हुए भारतीय जनता के पसीने से कमाए गए टैक्स को लेकर कर रहे हैं और साथ ही सीवेज साफ कर रहे एक व्यक्ति पर लगभग डेढ़ मिनट का फिल्माया गया दृश्य अंदर से झुनझुनी पैदा कर देता है कि कैसे कोई कैसे कोई इतनी गंदगी में उतर कर नाक- मुंह बंद करके पूरे समाज का कचरा ऊपर ढोलता है। उस समय निषाद कहता है कि "बॉर्डर से ज्यादा तो सफाई कर्मचारियों की मृत्यु हर साल देश में हो जाती है परंतु कहीं कोई हलचल नहीं होती" 

अहम सवालों को उठाकर खत्म हो जाती है फिल्म 


असल में फ़िल्म हमारे 70-71 साल के पूरे विकास में वंचित तबके, खास करके दलित और आधी आबादी के अस्मिता का प्रश्न उठाती है। यह प्रश्न और उनके आजीविका, गरिमा और सम्मान के साथ आर्टिकल 15 के आलोक में भारत जैसे विशाल देश में जीने के संदर्भ में है जहां मंदिर प्रवेश भी एक मुद्दा है, पुलिस वालों का राजनीति, धर्म और ठेकेदारों के साथ घुल-मिल जाना भी परंतु आश्वस्ति सिर्फ इतनी है कि अभी भी अयान रंजन जैसे युवा अधिकारी और लाखों युवा हैं।

हम इस समय विश्व के सबसे ज्यादा यानी 55% युवा भारत में रखते है और ये युवा चाहे तो जाति, संप्रदाय, धर्म, ध्वजाएं और राजनीति के दायरे तोड़कर वास्तव में समाज बदलाव में एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। फिल्म के पटकथा लेखक और हिंदी के युवा कहानीकार गौरव सोलंकी ने बहुत थोड़े वर्षों में ही अपनी मेधा और मेहनत का इस्तेमाल करके जगह बनाई है। यद्यपि गौरव का अभी बेहतरीन आना बाकी है पर कहानियों के बाद एक नये माध्यम में डंके बजाते हुए खंभे गाड़ने की यह कहानी अप्रतिम है

अनुभव सिन्हा का अच्छा काम 


कम लागत और भौंडे प्रदर्शन ना करते हुए निर्देशक अनुभव सिन्हा ने बहुत बेहतर काम किया है। फिल्म में बदलाव का गीत भी है और बेटियों की विदाई का भी, बस अफसोस इतना है की विदाई गीत पोस्टमार्टम की लाश को ढोते हुए गाया गया है और बाकी तो दृश्य संयोजन, प्रकाश , संवाद बहुत अच्छे हैं फिल्म का फ्लो अच्छा है, निर्देशन काफी सधा हुआ है; गौरव के साथ अनुभव भी बधाई के पात्र हैं और सारे कलाकार भी।

एक बात मैं यह कहना चाहता हूं कि जब मैं इन कलाकारों को देख रहा था तो मुझे हबीब तनवीर का नया थियेटर याद आ रहा था - जिसके सारे कलाकार एकदम देसी बीड़ी पीने वाले और जमीनी थे जो नाटक के बाद में बाहर आकर लोगों से सहज मिलते थे पता ही नहीं चलता था कि वह किसी बड़े नाटक समूह के हिस्से हैं।

बहरहाल, फ़िल्म देखिए बहुत ज़्यादा अपेक्षा के साथ ना जाएं लेकिन देश की हालत यहां तक पहुंचाने वालों को देखने और 70% हिस्से का दुख दर्द देखने जरूर जाएं कम से कम एक विचार भी दिमाग़ में खटके या आप संविधान का आर्टिकल 15 गूगल भर कर लें।






संदीप नाईक

देवास मप्र में रहते है, 34 वर्ष विभिन्न प्रकार के कामों और नौकरियों को करके इन दिनों फ्री लांस काम करते है. अंग्रेज़ी साहित्य और समाज कार्य मे दीक्षित संदीप का लेखन से गहरा सरोकार है, एक कहानी संकलन " नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएँ" आई है जिसे हिंदी के प्रतिष्ठित वागीश्वरी सम्मान से नवाज़ा गया है , इसके अतिरिक्त देश की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में सौ से ज़्यादा कविताएं , 150 से ज्यादा आलेख, पुस्तक समीक्षाएं और ज्वलंत विषयों पर शोधपरक लेख प्रकाशित है 

सम्पर्क naiksandi@gmail.com

No comments

Post a Comment

Don't Miss
© all rights reserved