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यूं ही चले जाना किसी का- संजय सिन्हा

Sunday, August 18, 2019

/ by Satyagrahi


दुबली-पतली और लंबी-सी वो लड़की हमेशा मुस्कुराती रहती थी। मेरी उससे पहली मुलाकात मई के महीने में हुई थी। बहुत साल पहले। तब मैं भोपाल से दिल्ली आया ही था और मुझे यहां जनसत्ता में नौकरी मिल गई थी। यहां आकर मुझे मालूम हुआ था कि पत्रकारिता की पढ़ाई भी होती है। पर मुझे पढ़ाई से क्या करना था? मैं तो बिना पत्रकारिता की पढ़ाई किए जनसत्ता में नौकरी पा चुका था। बहुत पहले तय हो चुका था मुझे सरकारी नौकरी नहीं करनी, पर कुछ तो करना था। आखिर में तय हुआ कि पत्रकार बनूंगा। 
जब पत्रकार ही बनना था तो फिर सबसे अच्छे अख़बार में क्यों नहीं?

मैंने जनसत्ता में आवेदन दिया और कई घंटों की लिखित परीक्षा और दस मिनट के इंटरव्यू के बाद मुझे उप संपादक पद के लिए चुन लिया गया। कॉलेज से सीधे इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में।

मेरे साथ दो और लोगों का चयन जनसत्ता में इसी पद पर हुआ था। सत्येंद्र रंजन और अरुण त्रिपाठी।

सबसे पहले मेरी दोस्ती सत्येंद्र से हुई थी। मैं सीधे कॉलेज से नौकरी में आया था, सत्येंद्र आईआईएमसी (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन) से पत्रकारिता की पढ़ाई करके।

सत्येंद्र ने ही सबसे पहले मुझे इस इंस्टीट्यूट के बारे में बताया था।

मुझे नौकरी मिली थी मार्च में। नौकरी ज्व़ॉयन करने के साथ ही मेरी नाइट ड्यूटी लग गई। शाम आठ बजे से दो बजे रात तक नौकरी। फिर घर आकर सोना और सुबह नींद खुलने के बाद शाम के आठ बजने का इंतज़ार करना। मैंने तय किया कि दिन का समय पढ़ाई में लगाया जाए। मैंने आईआईएमसी में एडमिशन के लिए आवेदन कर दिया। मई का महीना था। दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में मेरा टेस्ट सेंटर पड़ा था।

दुबली-पतली, लंबी-सी वो लड़की सलवार-सूट में वहां मुझे दिखी थी। तब मेरा ध्यान उसकी ओर नहीं गया था।

लेकिन जब मुझे आईआईएमसी में एडमिशन मिल गया तो पहले दिन ही वो मुझे अपनी कक्षा में नज़र आई।
परिचय हुआ।

“मैं संजय सिन्हा।”

“मैं नीलम शर्मा।”

फिर एक-एक करके सबसे हमारा परिचय होता गया। 

मैं मंजुला अवतार। मैं मंजू अरोड़ा। मैं राजश्री दत्ता। मैं सुमेधा कौल। मैं संगीता महादानी, मैं उमा, मैं अजय पांडे, मैं आलोक श्रीवास्तव, मैं जेमिनी श्रीवास्तव, मैं हामिद हुसैन, मैं मेदिनी, मैं संतोष वाल्मिकी, मैं इंदू, मैं कमलेश राठौर, मैं संजय सोनी, मैं राजेश खरे, मैं अंशुमान त्रिपाठी, मैं प्रदीप मिश्रा, मैं अरविंद दास, मैं पुनीत।

पहली मुलाकात में ही सबसे परिचय हो गया। मुमकिन है एक दो नाम छूट भी गए हों पर सभी से परिचय होने के बाद मुझे पता चला कि मैं अकेला हूं जो यहां वो पढ़ाई करने आया है, जिसकी नौकरी उसे मिल चुकी है।

मुझसे इंटरव्यू में किसी ने पूछा नहीं था, मैंने किसी को बताया नहीं था कि मैं नौकरी में हूं।

मैंने क्लास में सभी को बता दिया था कि मैं जनसत्ता में हूं। दो महीने में बात पहुंची संस्थान के डायरेक्टर तक। डायरेक्टर थे जसंवत सिंह। उन्होंने बुलाया, कहा कि संजय तुम्हें नौकरी या कोर्स में से एक चीज़ छोड़नी होगी। तुम नौकरी करते हुए पढ़ाई नहीं कर सकते। अब मैं परेशान हुआ।


मैं नीचे ऑडिटोरियम के पास खड़ा था। नीलम मेरे सामने आई। उसने मुस्कुराते हुए पूछा कि कोई बात हो गई क्या?

मैंने कहा कि मैं नौकरी में हूं ये बात संस्थान को नागवार गुज़र रही है।
नीलम ने कहा, “आराम से पढ़ो। कहां लिखा है कि नौकरी वाले नहीं पढ़ सकते। वैसे भी तुम रोज़ तो क्लास में आते ही हो। ड्यूटी रात की है।”

मुझे बहुत ढाढ़स मिला।

अगले दिन डायरेक्टर ने मुझे बुलाया तो मैंने कह दिया कि कहां लिखा है कि नौकरी वाले इस कोर्स में दाखिला नहीं ले सकते। डाइरेक्टर साहब ने कहा कि ये फुल टाइम कोर्स है।।

बात चलती रही। मैं पढ़ता रहा। आखिर तय हुआ कि मेरी पढ़ाई पूरी होने दी जाए, लेकिन उसी साल नियमों में बाकायदा लिखा गया कि नैकरी के साथ ये पढ़ाई नहीं की जा सकती है।

मेरी पढ़ाई चलती रही। नहीं, मैं गलत कह रहा हूं। बाकी सभी वहां पढ़ाई करते थे। मैं नहीं पढ़ता था। मेरे मन में ये था कि यहां से पढ़ाई के बाद सभी किसी न किसी अख़बार में नौकरी पाने की कोशिश करेंगे। मेरे पास पहले से ही नौकरी थी।

खैर, मुझे आज अपनी कहानी नहीं सुनानी।

कल शाम अचानक पता चला कि नीलम नहीं रही।

यकीन ही नहीं हुआ। कुछ महीने पहले ही हम मिले थे। दो साल पहले हम पटना में एक कार्यक्रम में भी मिले थे। उससे पहले हमारी मुलाकात दिल्ली के एक कार्यक्रम में हुई थी। और उससे बहुत पहले हम दूरदर्शन के ऑफिस में मिले थे।  नीलम हर बार वैसे ही मिलती थी। मुस्कुराती हुई।   

हालांकि मैं अगर आईआईएमसी के दिनों को याद करूंगा तो मेरी दोस्ती औरों से अधिक हो गई थी, नीलम से उतनी नहीं रही थी। पर नीलम की सादगी, उसकी संजीदगी हमेशा हम सभी को आकर्षित करती थी।

एक बार दिल्ली में किसी प्रोग्राम में मुलाकात के दौरान मैंने नीलम से कहा था कि तुम क्लासिक एंकर हो। 

वो हंसी थी। “क्लासिक मतलब?”

“चीखने-चिल्लाने वाली नहीं।”

टीवी न्यूज़ पर चीखने-चिल्लाने का दौर शुरू हो चुका था। मर्द-औरत दोनो एंकर चीखने लगे थे। ऐसे में कोई जलतरंग की तरह संयत होकर ख़बर पढ़े उसे क्या कहेंगे?

नीलम ने कहा था कि एक तो वो प्राइवेट न्यूच चैनल में नहीं है। दूसरे चीखना उसे आता ही नहीं।

मुझे नहीं पता क्यों, पर नीलम ने एक बार दूरदर्शन का दामन थामा, तो फिर उसने कभी किसी प्राइवेट चैनल की ओर मुंह नहीं किया।

वो अपने काम से बेहद प्यार करती थी। वो हमेशा खुश रहती थी। कम बोलती थी, स्पष्ट बोलती थी।

मैंने उससे एक बार ये भी कहा था कि तुम्हें देख कर मुझे सरला माहेश्वरी की याद आती है। एंकर अपनी तुलना किसी से पसंद नहीं करते। बोलने के बाद मुझे लगा कि नीलम मुझे टोकेगी। वो कई बातों पर टोकती थी। लेकिन उस दिन उसने हंसते हुए कहा था, कहां वो, कहां मैं।

नीलम से अधिक बार नहीं मिलना हुआ। पर जब भी कहीं मुलाकात हुई, वो उसी मुस्कुराहट के साथ मिली।

हमारा आईआईएमसी का एक व्हाट्सएप ग्रुप है। मैं उसका मौन सदस्य हूं। नीलम भी उसकी मौन सदस्य थी।

उसी ग्रुप पर कल शाम पता चला कि नीलम हमेशा के लिए मौन हो गई है।
उसकी तबियत कब ख़राब हुई पता नहीं चला। वो कब अस्पताल में भर्ती हुई पता नहीं चला।

पता यही चला कि नीलम चली गई।  नीलम हमारे बीच की थी। हमारे साथ की थी। उसकी जाने की उम्र नहीं थी। पर चली गई।  मैं कुछ नहीं कह रहा। मैं कुछ कहना नहीं चाहता।

आज नीलम के साथ घर-घर का एक चिर-परिचित चेहरा सदा के लिए चला गया।

नीलम सिर्फ हमारी दोस्त नहीं थी। लाखों घरों की दोस्त थी।


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संजय सिन्हा

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