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न्यायिक हिरासत और पुलिस हिरासत के बीच कुछ अहम फर्क

सामान्यतया 'कस्टडी' (हिरासत) का अर्थ एक व्यक्ति पर नियंत्रण या निगाह रखना है। इसका तात्पर्य किसी व्यक्ति के अपनी इच्छा के मुताबिक कहीं आने-जाने पर प्रतिबंध से है।
हिरासत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत आजादी के अधिकार पर सीधा हमला है, इसलिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कानून में एक विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित की गई है कि किसी व्यक्ति को केवल कानूनी उद्देश्यों के लिए ही अधिकारी द्वारा उचित, तार्किक और समानुपातिक तरीके से हिरासत में लिया जाये।
'हिरासत' और 'गिरफ्तारी'
हिरासत और गिरफ्तारी पर्यायवाची नहीं हैं। गिरफ्तारी किसी व्यक्ति को पुलिस द्वारा बलपूर्वक कैद में रखना है। (1)
गिरफ्तारी के बाद हिरासत होती है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि हिरासत के प्रत्येक मामले में पहले गिरफ्तारी हो। उदाहरण के तौर पर, जब कोई व्यक्ति अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण करता है तो वह हिरासत में होता है, इस मामले में गिरफ्तारी नहीं होती है।

न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने 'निरंजन सिंह बनाम प्रभाकरण राजाराम खरोटे' मामले में दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 438 के तहत 'हिरासत में' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है -

वह (एक व्यक्ति) केवल उस समय ही हिरासत में नहीं होता, जब पुलिस उसे गिरफ्तार करती है, उसे मजिस्ट्रेट के पास पेश करती है और उसे न्यायिक या अन्य कस्टडी पर रिमांड में लेती है। उसे उस वक्त भी हिरासत में कहा जा सकता है जब वह अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण करता है और उसके निर्देशों को मान लेता है।(2)
इस प्रकार, जब किसी अभियुक्त ने सत्र अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया है, तो सत्र अदालत सीआरपीसी की धारा 439 के तहत जमानत याचिका पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र हासिल कर लेता है।(3)
निरंजन सिंह मामले का अनुसरण करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में व्यवस्था दी थी कि यदि उच्च न्यायालय ने किसी आरोपी को अपने समक्ष आत्मसमर्पण करने की अनुमति दी है, तो वह उच्च न्यायालय की हिरासत में होगा। इसलिए, हाईकोर्ट को सीआरपीसी की धारा 439 के तहत नियमित जमानत के लिए आवेदन पर विचार करने का अधिकार होगा।(4)
पुलिस हिरासत
जब एक पुलिस अधिकारी एक व्यक्ति को संज्ञेय अपराध करने के संदेह में गिरफ्तार करता है, तो गिरफ्तार व्यक्ति को हिरासत में लिया गया बताया जाता है। पुलिस हिरासत का उद्देश्य अपराध के बारे में अधिक जानकारी इकट्ठा करने के लिए संदिग्ध से पूछताछ करना है, और सबूतों को नष्ट करने से रोकना और गवाहों को आरोपी द्वारा डरा-धमकाकर मामले को प्रभावित करने से बचाना है। यह कस्टडी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना 24 घंटे से अधिक नहीं हो सकती।
पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये गये और हिरासत में रखे गए प्रत्येक व्यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए, जिसमें गिरफ्तारी के स्थान से लेकर मजिस्ट्रेट के कोर्ट तक के सफर का आवश्यक समय शामिल नहीं होगा।[5] मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी भी व्यक्ति को 24 घंटे की अवधि से अधिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।[6]
न्यायिक हिरासत
जब पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के पास पेश किया जाता है तो उसके पास दो विकल्प होते हैं, आरोपी को पुलिस हिरासत में या न्यायिक हिरासत में भेजना।
यह सीआरपीसी की धारा 167(2) के प्रावधानों से स्पष्ट है कि मजिस्ट्रेट को जो उचित लगता है उस प्रकार की कस्टडी वह आरोपी के लिए मुकर्रर कर सकता है।
पुलिस हिरासत में, पुलिस के पास आरोपी की शारीरिक हिरासत होगी। इसलिए जब पुलिस हिरासत में भेजा जायेगा, तो आरोपी को पुलिस स्टेशन में बंद कर दिया जाएगा। उस परिदृश्य में, पुलिस को पूछताछ के लिए आरोपी तक हर समय पहुंच होगी।
न्यायिक हिरासत में, अभियुक्त मजिस्ट्रेट की हिरासत में होगा और उसे जेल भेजा जाएगा। न्यायिक हिरासत में रखे गये आरोपी से पूछताछ के लिए पुलिस को संबंधित मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी होगी। मजिस्ट्रेट की अनुमति से ऐसी हिरासत के दौरान पुलिस द्वारा पूछताछ, हिरासत की प्रकृति को बदल नहीं सकती है [7]।
धारा 167 के तहत यह आवश्यक नहीं कि सभी परिस्थितियों में गिरफ्तारी एक पुलिस अधिकारी द्वारा ही की जानी चाहिए, किसी और द्वारा नहीं तथा केस डायरी की प्रविष्टियां का रिकॉर्ड आवश्यक रूप से होना ही चाहिए। इसलिए, हिरासत निश्चित तौर पर एक सक्षम अधिकारी या गिरफ्तारी का अधिकार प्राप्त अधिकारी द्वारा इस मान्यता कि 'आरोपी संबंधित कानून के तहत दंडनीय अपराध का दोषी हो सकता है', पर विचार करते हुए गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को सक्षम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने पर ही संभव होगा, बावजूद इसके कि जिस अधिकारी ने गिरफ्तारी की है वह सही अर्थों में पुलिस अधिकारी नहीं है।(8)

गिरफ्तारी के पहले पंद्रह दिनों के बाद पुलिस हिरासत नहीं
गिरफ्तारी के बाद मजिस्ट्रेट के समक्ष पेशी के पहले 15 दिनों के भीतर ही आरोपी को पुलिस हिरासत में भेजा जा सकता है।
सीआरपीसी की धारा 167(दो) का उपबंध-ए कहता है कि मजिस्ट्रेट पुलिस हिरासत में 15 दिनों की अवधि से परे अभियुक्तों की हिरासत अवधि बढ़ाने की अनुमति दे सकता है।
पुलिस हिरासत में नजरबंदी को आमतौर पर कानून मंजूरी नहीं देता। धारा 167 का उद्देश्य अभियुक्तों को उन तरीकों से बचाना है, जिन्हें "कुछ अति उत्साही और बेईमान पुलिस अधिकारियों" द्वारा अपनाया जा सकता है। [9]
सामान्य भाषा, खासकर "पुलिस की हिरासत से अन्यथा पंद्रह दिनों की अवधि से परे" शब्दों पर विचार करते हुए यह व्यवस्था दी गयी कि पहले पंद्रह दिनों की समाप्ति के बाद 90 दिनों या 60 दिनों की शेष अवधि के लिए केवल न्यायिक हिरासत ही होगी तथा यदि पुलिस कस्टडी आवश्यक हुई तो इसका आदेश केवल पहले 15 दिनों के भीतर ही हो सकता है।[10]

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है:
इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि संबंधित धारा में अंतर्निहित सम्पूर्ण उद्देश्य पुलिस हिरासत अवधि को सीमित करना है। हालांकि, गंभीर प्रकृति के मामलों की जांच पूरी होने में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए विधायिका ने अभियुक्तों को 90 दिनों की विस्तारित अवधि के लिए डिटेंशन बढ़ाने के प्रावधान किये हैं, लेकिन इस प्रावधान में स्पष्ट किया गया है कि इस प्रकार का डिटेंशन केवल न्यायिक हिरासत ही होगी। इस अवधि के दौरान पुलिस से गंभीर मामलों में भी जांच पूरी होने की अपेक्षा की जाती है। अन्य अपराधों के मामले में साठ दिनों की अवधि में जांच पूरी होने की उम्मीद की जाती है।" [11]
यदि मजिस्ट्रेट संतुष्ट है तो मृत्युदंड, आजीवन कारावास या 10 साल की जेल की सजा वाले अपराधों के लिए न्यायिक हिरासत 90 दिनों तक तथा अन्य अपराधों के लिए 60 दिनों तक बढ़ायी जा सकती है।
यदि परिस्थितियां न्यायोचित लगती हैं, तो सीआरपीसी की धारा 167 (दो) के तहत वर्णित प्रावधानों के अनुरूप निर्धारित समय सीमा (15 दिन में) न्यायिक हिरासत में भेजे गये आरोपी को पुलिस हिरासत और पुलिस हिरासत से न्यायिक हिरासत में भेजा जा सकता है।(12)

कई अपराध करने के आरोपी को पुलिस हिरासत
यदि यह पुलिस को पता है कि आरोपी एक संदिग्ध अपराध के लिए पहले से ही हिरासत में हो और वह कुछ अन्य अपराधों से भी जुड़ा है, तो क्या अन्य अपराधों के संबंध में पुलिस हिरासत मांगी जा सकी है, भले ही आरोपी ने पहले अपराध के लिए 15 दिनों की पुलिस हिरासत काट ली हो?
हां, बशर्ते कि दूसरे अपराधों को उस अपराध से अलग किया जा रहा हो, जिसके संबंध में उसे पहली बार हिरासत में लिया गया था।
हां, बशर्ते अन्य अपराध उस पहले वाले अपराध से भिन्न हों जिसके लिए उसे पहली बार पुलिस हिरासत में लिया गया था। जिस घटना के लिए आरोपी को पहले ही पुलिस हिरासत में ले लिया गया था और उस घटना की जांच के दौरान और अधिक गम्भीर अपराधों का पता चलता है तो पुलिस आरोपी को 15 दिन से अधिक के लिए हिरासत में लेने के लिए अधिकृत नहीं होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने 'केंद्रीय जांच ब्यूरो, विशेष जांच प्रकोष्ठ-1, नयी दिल्ली बनाम अनुपम जे. कुलकर्णी एआईआर 1992, एससी 1768' मामले में इस स्थिति की विस्तृत व्याख्या कर दी है।
एक घटना में ऐसा हो सकता है कि आरोपी ने कई अपराध किए हों और पुलिस उसे उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर एक या दो अपराधों के सिलसिले में गिरफ्तार कर सकती है और पुलिस हिरासत हासिल कर सकती है। यदि जांच के दौरान अधिक गंभीर मामलों में आरोपी की संलिप्तता पायी जाती है तो पहले 15 दिनों की कस्टडी के बाद पुलिस आगे की अवधि के लिए कस्टडी नहीं मांग सकती।

यदि इसकी अनुमति दी जाती है तो पुलिस विभिन्न चरणों में गंभीर प्रकृति के कुछ अपराध जोड़ सकती है और बार-बार पुलिस हिरासत की मांग कर सकती है, इस प्रकार धारा 167 में अंतर्निहित महत्वपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकेगी।

हालांकि यह प्रतिबंध दूसरी घटना पर लागू नहीं होगा, जिसमें गिरफ्तार आरोपी की संलिप्तता का खुलासा होता है। यह एक अलग ही मामला बनेगा और अगर एक अभियुक्त एक मामले में न्यायिक हिरासत में है और पुलिस को दूसरे मामले की जांच में उस व्यक्ति की आवश्यकता है तो उसे दूसरे मामले में औपचारिक तौर पर गिरफ्तार किया जाना चाहिए और फिर पुलिस हिरासत के लिए मजिस्ट्रेट का आदेश प्राप्त करना चाहिए।

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एस. हरसिमरन सिंह बनाम पंजाब सरकार, 1984 के मामले में इस सवाल पर विचार किया कि क्या धारा 167(दो) में वर्णित 15 दिनों की पुलिस हिरासत की सीमा एक ही मामले पर लागू है या समान अभियुक्त वाले विभिन्न मामलों पर लागू होती है? न्यायालय ने व्यवस्था दी थी (पैरा 10ए)


हमें एक अपराध के संदर्भ में हिरासत में रखे गये एक अपराधी की दूसरे अपराध की जांच के लिए फिर से गिरफ्तारी न करने को लेकर कोई ठोस प्रतिबंध नजर नहीं आता। दूसरे शब्दों में, अन्य अपराध की जांच के लिए सीआरपीसी की धारा 167(दो) के तहत मजिस्ट्रेट के आदेश द्वारा न्यायिक हिरासत को पुलिस हिरासत में बदले जाने में कोई बाधा नहीं है। इसलिए एक अलग मामले में फिर से गिरफ्तारी या दूसरी गिरफ्तारी कानून से परे नहीं है।
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने कुलकर्णी मामले में व्यवहार्य करार दिया था।
पंद्रह दिन बीत जाने के बाद अभियुक्त को पुलिस हिरासत में बंद नहीं रखा जा सकता, भले ही उसी घटना से संबंधित कुछ अन्य अपराधों में उस आरोपी की संलिप्तता के बारे में बाद में पता क्यों न चला हो? (बुध सिंह बनाम पंजाब सरकार (2000)9 एससीसी266)

जब आगे की जांच के दौरान आरोपी को गिरफ्तार किया जाता है-
सीआरपीसी की धारा 309(दो) के प्रावधान किसी आरोपी को संज्ञान लेने के बाद हिरासत में भेजने के कोर्ट के अधिकार की व्याख्या करता है। यह रिमांड केवल न्यायिक हिरासत भी हो सकती है।
तो, क्या आरोप-पत्र दायर करने के बाद आगे की जांच के चरण में गिरफ्तार आरोपी को पुलिस रिमांड पर भेजा जा सकता है?
क्या ऐसे अभियुक्त को सीआरपीसी की धारा 309(दो) के प्रावधानों के मद्देनजर केवल न्यायिक हिरासत में भेजा जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट ने इन सवालों का जवाब सीबीआई बनाम दाऊद इब्राहिम कास्कर के फैसले में दिया था।(13) अदालत ने व्यवस्था दी कि आगे की जांच के चरण में गिरफ्तार किये गये आरोपी के रिमांड का मामला धारा 167(दो) के तहत निपटा जाना चाहिए, न कि धारा 309(दो) के प्रावधानों के तहत। क्योंकि जहां तक उस आरोपी का संदर्भ है तो जांच अब भी जारी है और पुलिस को उसकी कस्टडी देने से इन्कार नहीं किया जा सकता।

कोर्ट ने व्यवस्था दी :-
इस बात में कोई संदेह नहीं हो सकता कि उपरोक्त उपखंड के पहले प्रावधान में उल्लेखित रिमांड और कस्टडी धारा 167 के तहत 'डिटेंशन इन कस्टडी' से अलग हैं। पूर्व के प्रावधानों के तहत रिमांड मामले के संज्ञान के चरण से संबंधित होता है और ऐसे मामले में न्यायिक हिरासत में हो सकती है, लेकिन बाद में प्रावधानों के तहत डिटेंशन जांच के चरण से संबंधित होता है और शुरू में या तो पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत कुछ भी हो सकती है। हालांकि किसी अपराध का संज्ञान लेने के बाद भी पुलिस को मामले की आगे की जांच करने का अधिकार रहेगा ही, जिसे केवल अध्याय-12 के अनुसार प्रयोग किया जा सकता है। हमें इस बात का कोई कारण नहीं दिखता कि क्यों धारा 167 के प्रावधान उस व्यक्ति पर लागू नहीं होगा, जो जांच के क्रम में पुलिस द्वारा बाद में गिरफ्तार किया जाता है।
जिस प्रकार मंसूरी मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने व्याख्या की है, उससे धारा 309 (दो) की व्याख्या होनी है, इसका मतलब है कि जब कोर्ट किसी अपराध का संज्ञान लेता है, तो वह सीआरपीसी की धारा 167 के तहत पुलिस कस्टडी में रखने के अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता। जांच एजेंसी आगे की जांच के दौरान गिरफ्तार व्यक्ति से पूछताछ के अवसर से वंचित नहीं हो सकती, भले ही उसे पर्याप्त सामग्रियां पेश करके अदालत को यह संतुष्ट करना पड़े कि उस व्यक्ति की पुलिस कस्टडी आवश्यक थी।
इसलिए हमारा मानना है कि धारा 309(दो) के तहत उल्लेखित शब्द 'एक्यूज्ड इफ इन कस्टडी' का संदर्भ एक वैसे आरोपी से है, जो संज्ञान लेते वक्त या उसके मामले में जांच या मुकदमा शुरू होने के दौरान अदालत के समक्ष था। इससे उस आरोपी का अभिप्राय नहीं है जो आगे की जांच के क्रम में गिरफ्तार किया गया हो।"

संज्ञान लेने के बाद गिरफ्तार किये गये भगोड़े आरोपी की पुलिस हिरासत
दाऊद इब्राहिम मामले में इस सिद्धांत का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बाद में व्यवस्था दी कि आरोप पत्र दायर करने के बाद गिरफ्तार किये गये भगोड़े आरोपी को पुलिस कस्टडी में भेजा जा सकता है।(14) सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट के उस आदेश को निरस्त कर दिया जिसके तहत यह कहते हुए पुलिस रिमांड देने से इन्कार कर दिया गया था कि रिमांड 309(दो) के तहत थी।
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संदर्भ :-
1. सीआरपीसी की धारा 46 कहती है कि पुलिस अधिकारी या सक्षम अधिकारी को गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति का शरीर छूना या जेल में डालना होगा।
2. निरंजन सिंह बनाम प्रभाकर राजाराम खरोटे, एआईआर 1980 एससी 785
3. आईबिड
4. संदीप कुमार बाफना बनाम महाराष्ट्र सरकार, एआईआर 2014 एससी 1745
5. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22(एक)
6. सीआरपीसी की धारा 57
7. ज्ञान सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन 1981 सीआरआईएलजे100
8. प्रवर्तन निेदेशालय बनाम दीपक महाजन एआईआर 1994 एससी 1775
9. केद्रीय जांच ब्यूरो, स्पेशल इंवेस्टीगेशन सेल-1, नयी दिल्ली बनाम अनुपम जे कुलकर्णी, एआाईआर 1992 एससी 1768
10. आईबिड
11. आईबिड
12. कोसानापु रामरेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश सरकार एवं अन्य, एआईआर 1994 एससी 1447
13. एआईआर 1997 एससी 2424
14. सीबीआई बनाम रतीन दंडापट और अन्य एआईआर, 2015 एससी 3285


साभार: लाइव लॉ हिंदी 

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