भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं में डिप्रेशन अधिक होता है किन्तु आत्महत्या पुरुष ज़्यादा करते हैं। क्यों.. आइये बताती हूँ।
मैं ज़्यादा नहीं लेकिन थोड़े बहुत आँकड़े रखना चाहूँगी जिससे तस्वीर साफ़ हो। मैं अगर मेरे राजस्थान विशेष की बात करूँ तो बीते दस बरसों में 14 हज़ार 719 महिलाओं ने जबकि 34 हज़ार 249 और एक ट्रांसजेंडर ने राजस्थान में आत्महत्या की।
महिलाओं में डिप्रेशन ज़्यादा होता है पुरुषों की तुलना में लेकिन आत्महत्या पुरुष ज़्यादा करते हैं महिलाओं की तुलना में क्योंकि पुरुषों में डिप्रेशन होता है ये बात आपके समाज में पहले स्तर पर तो स्वीकार नहीं की जाती। जब स्वीकार ही नहीं की जाती आसानी से तो इलाज और उबरना भी उतना ही मुश्किल रहेगा। कहाँ जाकर दिल खाली करें!
कैसे... वो ऐसे...
सख्ती की चादर, मर्दवादी कंडीशनिंग, कठोर ह्रदय, मर्द को दर्द नहीं होता, यार मैं भी बिखर गया तो कैसे चलेगा... खुद ही के खिलाफ खुद के द्वारा खड़ी की गई दीवारें जिनको अभेद्य बनाने के जतन भी स्वयं द्वारा। कठोरता का आवरण और उस पर बेदर्दी से सीमेंट चढ़ाकर और पक्का कर देना।
मेरे पास लड़के ज्यादा आते हैं डिप्रेशन के पेशेंट्स।
- 'मर्द होकर रोता है!'
- लड़का होकर लड़कियों की तरह आँसू बहा रहा है!'
- शर्म आनी चाहिए इससे अच्छा तो लड़की ही पैदा हो जाता!'
- 'अब आदमी ज़ात को कहाँ शोभा देता है यूँ टूटना!'
- 'मर्द भी यूँ रोने लगे तब तो चल गया घर!'
- 'इसको किस बात का डिप्रेशन, सुंदर बीवी, बच्चे, अच्छी खासी नौकरी!'
- 'मर्द है भी कि नहीं! देखो तो कैसे कोने में बैठकर रो रहा है!' आदि इत्यादि।
मैं एक बात कोट करना नहीं भूलती हूँ कि घर से मिली कंडीशनिंग आपका मरते दम तक पीछा नहीं छोड़ती चाहे अच्छी हो चाहे बुरी और दुर्भाग्यवश जेंडर के मामले में हमारे यहाँ बहुत गंदगी मची हुई है।
लड़का है तो नौकरी करनी ही होगी। सपने में भी नहीं सोच सकता कि घर संभाल ले। उसको सहूलियत ही नहीं कि बिना नौकरी का सोचे जीवन बिता दे। अपवाद की बात हम नहीं करेंगे क्योंकि उससे उदाहरण नहीं बनते।दबाव की बाते करें तो ये सिर्फ समाज या परिवार का ही बनाया हुआ नहीं है पुरुषों पर, ये उनका स्वयं का भी पैदा किया हुआ है।
तनाव/विषाद और स्ट्रेस (प्रतिबल) क्या होता है:
परिस्थितियाँ, जो व्यक्ति को समायोजन और समाधान से दूर ले जाती हैं, उसमें संवेगात्मक विचलन और विरोध पैदा करती है, तनाव के रूप में सामने आती हैं। ऊपरी तौर पर ना भी उस तरह से दिखाई दे किन्तु अन्दर ही अन्दर इस कदर संचय हो जाता है तनाव का कि व्यक्तित्व में जटिलता आ जाती है फलस्वरूप दिनचर्या से लगाकर मानसिक स्वास्थ्य तक इसकी ज़द में आकर भयंकर परिणाम की और निकल पड़ते हैं।
स्ट्रेस क्या है; दबावपूर्ण परिस्थितियों में स्वयं को असमायोजन से भरी मानसिक जटिलताओं से घिरा हुआ पाना।
साधारण शब्दों में कहूँ तो कुल मिलाकर समायोजन न कर पाना ही आपका तनाव है, प्रतिबल है जिसके फलस्वरूप अंतर्द्वंद (conflict), कुंठा (frustration) और दबाव (pressure) पैदा होते हैं।
अंतर्द्वंद- अंतर्द्वंद तब होता है जब दो विरोधी उद्दीपक( परिस्थितियाँ) उत्पन्न हो जाए और दोनों को एक साथ पाने की ललक हो और वो संभव ना हो।
कुंठा- उन दो विरोधी प्रेरकों को ना पाने से उत्पन्न स्थिति कुंठा है।
दबाव- उपर्युक्त वर्णित दोनों अवस्थाओं से निकलने या उनको जीतने की स्थिति।
कमोबेश एक ही तरह के कारण होते हैं महिलाओं और पुरुषों के तनाव के किन्तु पुरुषों में कुछ बातें अलग तरह से दबाव डालती हैं यथा;
- पुरुषत्व का दबाव; जो मैंने सबसे पहले ऊपर बताया।
- पुरुषों के रोने पर उन्हें शर्मिंदगी महसूस करवाना।
- खुद स्वीकार न करना कि हम अवसाद में हैं।
- पारिवारिक दबाव जिसमें सदियों पुरानी कंडीशनिंग से लगाकर उसे आज तक पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित करती पारिवारिक और सामाजिक इकाईयाँ।
- जैविक करक; इसमें संक्रामक रोग, शारीरिक आघात, आहार से सम्बंधित दोष, नशा आती इत्यादि आते हैं।
- मनोवैज्ञानिक करक; इसमें कुंठा, असफलताएँ, हानियाँ, पर्सनल लिमिटेशंस, फीलिंग ऑफ़ गिल्ट, असंबद्धता और निरर्थकता, अंतर्द्वंद, दबाव आदि आते हैं।
- सामाजिक कारक; इसमें राजनीतिक उथल पुथल, युद्ध हिंसा, समूह पूर्वाग्रह और उससे उपजे पक्षपात एवं विवाद आदि।
- आर्थिक और कार्य से सम्बंधित कारक, विवाह और निजी रिश्तों से उपजी समस्याएँ जिनका कैनवास बहुत फैला हुआ है, कारकों में आते हैं।
मेरे पास आने वाले डिप्रेशन के पेशेंट्स को सबसे पहले मैं एक ही काम करवाती हूँ और वो है खुलकर रोना। जितने सेशंस हो जाएँ तो हो जाएँ, रोइए पहले। कहना नहीं पड़ता, उनके अवसाद को जगह मिलते ही वो रोना चाहते हैं और रोते हैं।
एक बात बहुत स्पष्ट रूप से बता देना चाहती हूँ कि जो रो नहीं सकते वो मजबूत नहीं बल्कि उन्हें हार्मोन्स से सम्बंधित समस्या है इसलिए किसी के ना रोने को ग्लोरिफाई मत कीजिए ये उनके लिए चिंता का विषय है।
पुरुषों के अवसाद को स्पेस नहीं मिलता क्योंकि जो कारण मैंने ऊपर बताएँ हैं जिसमें उन पर थोपे गए कारणों के साथ साथ उनके खुद के भी पैदा किए गए कारन मुख्य हैं। ये मुख्या वजह है कि विषद होता औरतों में ज़्यादा है किन्तु आत्महत्या पुरुष ज़्यादा करते हैं।
आप अपनी ज़िंदगी में पुरुषों को ना सिर्फ इनके रोने का स्पेस दें, सहूलियत दें, बल्कि उनके द्वारा की जा रही आत्महत्याओं को रोकने में अहम् भूमिका निभा सके हैं।
क्या औरत और क्या पुरुष, इस समाज में आपको चारों तरफ बराबर से पुरुष के रोने को कायरता से जोड़ते लोग मिलते हैं। क्यों हैं ऐसा?
आपको तो ये भी कहाँ पता है कि पुरुष ज़्यादा आत्महत्या करते हैं क्योंकि वो अपने अवसाद से लड़ नहीं पाते वही पुरुष जिसे मर्द शब्द से इतना खोखला कर दिया गया है कि खुद को मार देने से उसे परहेज़ नहीं और इस बीमार ग्रंथि को पोसने वाले जहाँ तक नज़रें दौड़ाएंगे, नज़र आएँगे।
रोने क्यों नहीं देते आप पुरुषों को! रोना कोई मानसिक अवस्था नहीं है। शारीरिक है। हार्मोन्स से जुड़ी हुई है। आप कौन होते हैं उसे रोकने वाले। भूख लगी खाना खाया, प्यास लगी पानी पिया, शरीर की तलब लगी सेक्स किया तो रोना आया तो रोए क्यों नहीं?
ये तो बात हुई समाज और परिवार की जिसकी वजह से पुरुषों में अवसाद उन्हें एक अलग स्तर पर ले जाने वाले कारणों में से अहम् भूमिका में है।
1. स्त्रोत- उस स्त्रोत की पहचान कीजिए जिससे तनाव पैदा हुआ और जगह घेरता जा रहा है।
2. अहम्- पुरुषों में एक नेचुरल अहम् की प्रवर्ती होती है जिसकी वजह से वो स्वीकार करने में बहुत वक़्त लगा देते हैं, तो उससे दूर होने के लिए थोड़ा होम वर्क कीजिए और अपने से अपोज़िट जेंडर वाले व्यक्ति के सामने अपनी बात रखिए।
3. काम को अंजाम देने की सक्रियता और निष्क्रियता में स्पष्ट अंतर पहचानिए। करना चाहते भी हैं या नहीं कोई काम या करना चाहते हैं लेकिन एफ्फ़र्ट्स ही नहीं हैं।
4. तनाव को खदेड़ने की प्रत्यक्ष प्रतिक्रियाएँ बनाम अप्रत्यक्ष प्रतिक्रियाएँ-
4.1 प्रत्यक्ष में स्थायी समाधान मिलेगा आपको जैसे कि अटैक; इसमें सीधी कार्यवाही परिस्थितियों और अवांछित लोगों के प्रति। साधारण शब्दों में कहूँ तो वस्तुनिष्ठ निर्णय ना कि व्यक्तिनिष्ठ।
4.2 वापसी(withdrawal) इसके लिए मैं आपको अभी का ताज़ा उदाहरण दूँगी। जैसे कोरोना। आपके पास इससे लड़ने के रास्ते अभी नहीं है इसलिए इससे दूर रहना और भागना आपको बचाएगा। हर वक़्त सामना करना और लड़ना भी समझदारी नहीं है। कभी कभी आपको भागना भी पड़ता है और वो भागना पॉजिटिव है।
4.3 समझौता- इसमें समझौतापूर्ण संधान मदद करेगा। मतलब अड़े ना रहना किसी बात पर जिससे तनाव बढ़ता जाए।
4.4 अप्रत्यक्ष प्रतिक्रियाओं में मनोवैज्ञानिक स्तर पर समाधान आते हैं। मैंने पिछले लेख में इस पर डिटेल में लिखा है तो इसके लिए आप उस पर जाएँ।
5. डिप्रेशन में सबसे ज़्यादा कारगर समाधान कार्य निर्देशित प्रतिक्रियाएँ (task oriented reactions) ही हैं। ऑटोमेटिक और सुनियोजित तरीके इसमें मुख्य हैं जैसे;
5.1 समस्या को पहले स्तर पर समझना।
5.2 वैकल्पिक समाधान पर जाना।
5.3 सेफ निर्णय लेना।
5.4 फोलोअप करना।
दोस्तों सब तरीकों पर भरी पड़ता है एक तरीका और वो है रोना और खूब रोना। रोने के लिए सामाजिक अनुमोदन की ज़रूरत नहीं है जिस दिन आप खुद भी ये बात औरतों की तरह समझ जाएँगे, बहुत कुछ सुलझ जाएगा।
रोने से समस्या नहीं सुलझती कहने वालों से सोशल डिसटेंसिंग बनाए रखिए। पुरुषों को रोने पर ताने मारने वालों में स्वयं पुरुषों के अलावा औरतों की भी बहुत बड़ी भागीदारी है इसलिए आज से और अभी से आप जब भी किसी को "मर्द" होने का हवाला देकर रोने से रोके तब समझ ले कि आप गुनाहगार है उसके अवसाद को एक कदम और आगे धकेलने में।
मैं उन लोगों के लिए लिखती हूँ जिन्हें मेरी ज़रूरत है और जो ठीक होना चाहते हैं। जो ना तो खुद ठीक हैं और ना किसी को ठीक होता देखना चाहते हैं अपने "इफ" और "बट" के साथ ऐसे लोगों को एक सेकंड के लिए भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
पिछले लेखों के सन्दर्भ के बिना ना पढ़ें, चूक सकते हैं। एक लेख में सब कुछ समाहित हो भी नहीं सकता।
जो पुरुष स्वीकार कर सकते हैं कि वो डिप्रेशन में हैं और जो रोते हैं वो सबसे मजबूत हैं। ध्यान रखिए क्योंकि ये प्राकृतिक है।
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भारती गौड़
Author of जाह्नवी, Counsellor (Psychologist)
👍
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