Responsive Ad Slot

Latest

latest

कहानी दो फैसलों की- भारती गौड़

Friday, July 3, 2020

/ by Satyagrahi
दो फैसले आए इन दिनों। 
गुवाहाटी हाईकोर्ट तलाक मामला जिसमें मंज़ूरी दी गई दूसरा दिल्ली हाईकोर्ट तलाक मामला अर्ज़ी अस्वीकार कर दी गई। दोनों के आधार भी हम देखेंगे। ये आपको मोटे तौर पर कोर्ट बनाम कोर्ट लगेगा ही। 
तलाक एक ऐसा मसला जो नितांत निजी होते हुए भी सामाजिक सरोकार से जुड़ा क्योंकि विवाह नाम "संस्था" के अंतर्गत आता है क्योंकि सामाजिक सन्दर्भों के बिना इसको भारतीय परिप्रेक्ष्य में समझना टेढ़ी खीर नहीं बल्कि एक धतुरा है। तलाक के मसलों में फैमिली काउंसलिंग अतिआवश्यक इसीलिए की गई क्योंकि ऐसे तो कोई भी कभी भी जाकर तलाक माँगेगा और फिर आपकी इस संस्था का होगा क्या!

भारत में अलग अलग धर्मों के अनुसार तलाक की प्रक्रिया चलती है अलग अलग कानून के तहत:
  • हिन्दू विवाह अधिनयम, 1955, जिसमें हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म शामिल हैं।
  • ईसाइयों के लिए तलाक अधिनियम, 1869, और भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 है।
  • मुस्लिमों के लिए तलाक की प्रक्रिया (personnel laws of divorce and the dissolution of marriage act, 1939) और मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 द्वारा नियंत्रित है और अब तीन तलाक कानून भी पारित हो चुका है।
  • पारसियों के लिए, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 के तहत है।
  • अन्य सभी धर्मों और और सामान्य मुद्दों के लिए विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत आता है ये सब।
ये तो हुई कानूनी जानकारी।

कोर्ट में दो चीजें होती है एक होता है निर्णय और एक होता है आदेश। निर्णय में बहुत कुछ शामिल रहता है भारी चीज़ है ये और आदेश आप तक दो चार पंक्तियों के रूप में पहुँचता है। गुवाहाटी हाईकोर्ट में और आधारों के साथ साथ एक जिस आधार को तलाक के लिए वैध बताया उस पर लोगों में गुस्सा है। होना भी चाहिए। 

हमारे कोर्ट वक़्त वक़्त पर प्रगतिशीलता की भी नजीरें देते रहे हैं साहसी फैसलों के रूप में जिसमें 377 और 497 शामिल है। ये निरपेक्ष रूप से प्रगतिशीलता का परिचय था है और कानून के इतिहास में हमेशा रहेगा। एलजीबीटी और अडल्ट्री के वक़्त भी एक बहुत बड़े तबके की भौंहे तन गई थी और कोर्ट को खूब गरियाया गया था लेकिन कोर्ट को कभी एक पैसे का फर्क पड़ता नहीं है।  एलजीबीटी पर लिखने पर मुझे और मेरे दोस्त अजीत भारती को खूब लानतें भेजी तथाकथित प्रगतिशील किन्तु कुंठित लोगों ने लेकिन जैसे कोर्ट को फर्क नहीं पड़ता, हमें कौनसा पड़ता है।

बात गुवाहाटी केस की
जिसमें और आधारों के साथ चूड़ी, सिंदूर और बिंदी को आधार बनाया गया है तलाक का। ध्यान दीजिएगा कि इसे और आधारों के साथ एक आधार बनाया गया है ये एकमात्र आधार नहीं बनाया गया है।अब बात ये कि क्या एक कोर्ट से ये उम्मीद की जा सकती है कि वो आगे कदम रखती हुई पीछे खिसक जाए! जी नहीं। कतई नहीं। ये उम्मीद के भी परे का आधार है।

लेकिन.. लेकिन हमारे भारतीय कानून जिनका ऊपर मैंने सिर्फ नाम बताया है, के विस्तार के अंतर्गत बहुत कुछ ऐसे आधार हैं जो समाज, संस्कृति, आपके आस पास का कल्चर, समुदाय, माहौल जिसमे परिवेश शामिल होता है को ध्यान में रखकर आधार बनाए जाते हैं और जो पहले से बने हुए हैं। चूँकि पारिवारिक मसलों में एक्ट्स और रुलिंग्स बहुत ही ज्यादा काम्प्लेक्स होते हैं जिसमें तलाक के मामलों में विवाह से सम्बंधित तमाम तरह के लोकप्रचलित मानकों को भी जज को ध्यान में रखना पड़ता है खासकर तब जब वादी ने भी इसे अपने दाखिल पत्र में रखा हो एक बिंदु के रूप में।

गुवाहाटी मामले में इसे आधार बनाया जाना गलत तो खैर है ही इसका कोई न्यायोचित कारण हो नहीं सकता लेकिन वादी ने इसे शामिल किया तो और आधारों में जज ने इसे भी जोड़ दिया। और इसलिए ये बहस छिड़ी। बाकी कारण और भी रहे जिसमें लड़की द्वारा लड़के को अपने माता पिता से अलग रहने औए दहेज़ के आरोप भी शामिल हैं।

जो लोग सिंदूर और बिंदी पर बात कर रहे हैं उनमें से अधिकतर का तर्क एकदम सही है कि आप और आधारों पर दें फैसला कोई दिक्कत नहीं लेकिन इसको आधार बनाएँगे तो दिक्कत तो होनी ही है क्योंकि ये कहीं से भी नज़ीर के लायक नहीं। जिसे आगे किसी केस में कोट किया जा सकता है और फिर ये एक उदाहरण के रूप में स्थापित होने में वक़्त ही कितना लगेगा वो भी भारतीय समाज में जहाँ एकता कपूर के नाटकों की बहुओं के रूप को कोटे किया जाता हो बहुओं में संस्कार जगाने की घटिया मंशा के रूप में।

परम्पराओं की बात तब तक भी झेली जा सकती है जब तक इसमें लैंगिक पूर्वाग्रह ना हो और ये लैंगिक निरपेक्ष आग्रह के रूप में हो। आप औरतों पर थोपते जाएँगे और आदमियों को फ्री हैण्ड करते जाएँगे वैवाहिक प्रतीकों के मामले तो दिक्कत तो सौ फीसदी होनी ही है क्योंकि जब आप काल परिप्रेक्ष्य जोड़ते हैं तो आप भी तो देखिए कि आप कौनसे काल की बात कर रहे हैं। पहले ऐसा होता था तो पहले तो बहुत कुछ होता था। 
भारतीय समाज में कम्फर्ट बहुत ही लैंगिक पक्षपात के रूप में रहा है क्योंकि इसकी झडें इतनी गहरी हैं कि खोदने पर सभ्यताओं के आक्रमण हो जाएँगे और जाने क्या क्या मिलेगा।  बाकि गुवाहाटी वाले केस में तलाक सिर्फ उस आधार पर नहीं हुआ है लेकिन तमाम आधरों में से उस एक बेकार आधार पर जो बहस चल निकली है वो जारी रहनी चाहिए क्योंकि वो बहुत ज़रूरी है।

अब आइए दिल्ली केस पर।
दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि यदि नवविवाहिता अपने कमरे में रहती है और घरेलु कामकाज में रूचि नहीं लेती है तो ये कोई पति के खिलाफ क्रूरता का मामला नहीं बनता जिस पर तलाक मांग लिया जाए। कोर्ट ने कहा कि ये ससुराल वालों की भी ज़िम्मेदारी है की आप उसे अपनत्व महसूस करवाएँ। एकदम से कोई कैसे नए परिवेश में ढल सकता है।

ये तो हुई दो बातें जिसमें एक में गलत बात को नज़ीर बनाया गया और दूसरे में ऐसी किसी बात को गलत नज़ीर बनने से रोका गया। चूड़ी, सिन्दूर, घरेलु कार्य, सबको साथ लेकर चलने की ज़िम्मेदारी, सबको खुश रखने की कवायद, बच्चा पैदा करके देना ही, हर तरह के सामंजस्य और समायोजन की उम्मीद रखना... अब देखिए शादी नामक संस्था की आधारभूत बातें है जो औरतों से अपेक्षित होती हैं। आदमियों से क्या अपेक्षित होता है शादी के बाद! यही कि कमाकर लाए, बच्चे पैदा होने के बाद उनकी शिक्षा का प्रबंध, पत्नी की जेवर कपड़ा दे, घर बनाकर दे, वगैरह वगैरह। इसमें पति पत्नी दोनों कमाते हों तो ये पारस्परिक सहयोग वाले पहलू पर शिफ्ट हो जाती हैं ज़िम्मेदारियाँ। लेकिन वो बोझ जो औरत पर ही रहता है वो किसी भी सूरत में आदमी पर शिफ्ट नहीं होता और शुरू होती है दिक्कतें यहाँ से।

लोक अदालतों में मैंने कम से कम डेढ़ सौ से ऊपर और संस्था में तो खैर सैंकड़ों तलाक के मामलो में काउंसलिंग करी है। 75 प्रतिशत मामलों में तलाक पति पत्नी के झगड़ों की वजह से नहीं होते। जी हाँ। ज़्यादातर मामलो में ससुराल पक्ष, उनके रिश्तेदार और कुछ मामलों में पीहर पक्ष की वजह से होते हैं क्योंकि जब ये है ही एक संस्था तो इसमें पति पत्नी खुश हो ना हो परिवार और आस पड़ोस, समाज, रिश्तेदार खुश रहने चाहिए। भारतीय इन मामलों में कभी नहीं सुधरेंगे और इसीलिए मैं एक गैर सामाजिक इन्सान हूँ और मरते दम तक रहूँगी। खैर..

सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि ब्याह भी करना है और ये स्वीकार भी नहीं करना है कि असल में ये दो लोगों का एक साथ नई जिंदगी शुरू करने का अति नाज़ुक मामला है। इसे ऐसे देखा जाता है कि "ये तो करना ही पड़ेगा", "यही सदियों से चला आ रहा रिवाज है", "तुम कोई नई आई हो क्या", "आदमी नहीं कमाएगा तो कौन कमाएगा, ये घर संभालता अच्छा लगता है क्या", "आजकल तो सब अलग ही रहते हैं माँ बाप को साथ रखने की ज़रूरत क्या है", "अब शादीशुदा है तो लगना भी तो पड़ेगा" पचासों घिसी पीटी बातें और सड़े गले रिवाज़ जो घिसट घिसटकर खुद दम तोड़ने के कगार पर हैं और जिनकी वजह से जाने कितने घर टूट गए लेकिन लोग जोंक की तरह चिपककर रहने से बाज़ नहीं आते। अपना अपना ईगो।

अरे जब ब्याह कर ही रहे हो तो समझो न इस बात को कि ज़िन्दगी किसके लिए जीना चाहते हो! प्राथमिकता किसकी ख़ुशी होनी चाहिए! दो लोग साथ मिलकर एक दूसरे की बजाय तीसरे को खुश क्यों करना चाहते हैं!
एक लड़की तो अपना सब कुछ छोड़कर आती है। आप ये उम्मीद रखते हैं कि आते ही इसका नया अवतार हो जाए। अरे ऐसे कैसे भाई? और लड़की ये क्यों सोचे कि माँ बाप क्यों साथ रहें? क्या आप अपने माँ बाप के लिए ऐसा सोच पाती हैं?

लड़ते रहिए, घर आपके बर्बाद होते हैं लोग तो मरे हुए के खाने में भी नमक शक्कर की कमी निकाल आते हैं, आपके जख्मों पर भी नमक ही रगड़कर जाएँगे। नमक उनका प्रिय स्वाद है। शादी का मतलब प्यार से कहीं ज़्यादा सामंजस्य, समायोजन, बलिदान, समझौते और दोस्ती है, लोगों को खुश करते रहने की कवायद नहीं। जो रिवाज़ गले में सांप की तरह लटके हों और जिससे जीवन ज़हर हो रहा हो उसे त्यागकर आगे बढ़ने में समझदारी है क्योंकि ज़िंदगी प्यार और सम्मान मांगती है ये मटेरियल से बनी चीज़ें नहीं। आपके समाज की हालत तो ये है कि पति कॉफ़ी बनाकर दे दे तो उसे किस्मत से जोड़ दिया जाता है आप सोचिए आपको किस तरह की बातों के साथ बड़ा किया गया है कि ये सोच है आपकी। कैसा माहौल है हमारे यहाँ! ज़रूरत को भी लक बोल दिया जाता है।

आदमियों द्वारा औरतों के लिए कॉफ़ी चाय बनाकर दे देना अगर किस्मत है तो आपको किस्मत को री डिफाइन करने की ज़रूरत है क्योंकि आपके इस बेकार से जुमले के अनुसार तो दुनिया सिर्फ और सिर्फ खुशकिस्मत आदमियों से भरी पड़ी है क्योंकि सदियों से औरतें रसोई में खप गई हैं उनके लिए।  सीधी से बात है कि ज़रूरत को नसीब नहीं कहा जा सकता और ख्वाहिश को ख्वाब नहीं कहा जा सकता। पहले अपनी कंडीशनिंग सुधारिए फिर दूसरों की। हम स्वस्थ नहीं तो सामने वाले को भी सिवाय संक्रमण के और क्या देंगे। जो ये सब शौक से करते हैं उन्हें शौक से करने दीजिए और जो नहीं करना चाहते उनको मजबूर करके उनके मालिक मत बनिए।

कोई माई का लाल किसी की ज़िन्दगी का मालिक नहीं है और फिर भी नहीं मानना तो आइए कोर्ट खुले ही हैं।
बाकि गलत बातों को कोर्ट भी नज़ीर बनाएगा तो सुनेगा ही क्योंकि जज भगवान नहीं और हमारी सभ्यताओं में तो भगवन भी अपराधमुक्त नहीं हो पाए कभी। जो नहीं समझते उनके लिए ही कोर्ट में हम जैसे बैठे रहते हैं काउंसलिंग के लिए और जो समझते हैं वो कभी कोर्ट पहुँचते ही नहीं। शादी दो लोगों का पहले है मसला उसके बाद है किसी तीसरे का मसला। बस इतना समझना है बस इतना। और वो दो खुश नहीं तो किसी तीसरे को हरगिज़ खुश नहीं कर सकते वो इसलिए पहले उन्हें तो सुलझने दीजिए। बाकी आपकी इच्छा। शादी हुई है भई पुनर्जन्म नहीं। समझना दोनों को‌ होगा।

जहाँ तक मेरी बात है तो मैं क्या पहनूँगी क्या‌ नहीं इसका फैसला या तो मैं करूँगी या सिर्फ मैं करूँगी। पायल आभूषण समझकर पहनी है, बेड़ियाँ समझकर पैरों में जो डालेगा, उसी से उसके हाथ बाँध दूँगी। स्पष्ट है।
(बहुत ही व्यापक स्तर पर बात करने वाला विषय है जिसमें बहुत सारे पहलू हैं। मैंने बस मामूली सी चीज़ें मोटे तौर पर शामिल की है। जटिल प्रक्रिया होती है ये बहुत ही)

*****************************************************

भारती गौड़ 
Author of जाह्नवी, Counsellor (Psychologist)
( Hide )

Don't Miss
© all rights reserved