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शाहबानो, तीन तलाक से लेकर सोमनाथ तक...

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Friday, December 29, 2017



संविधान के मुताबिक भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई मौके आए, जब धर्म ने राजनीति और सरकारों के फैसलों को प्रभावित किया है.

ऐसा ही एक मौका गुरुवार को लोकसभा में देखा गया. जहां एक बार में तीन तलाक़ को अपराध करार करने वाला विधेयक (मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक) विपक्षी दलों की मांग के बावजूद बिना किसी संशोधन के पास हो गया. अब इसे राज्यसभा के सामने रखा जायेगा. जहां से पास हो कर यह क़ानून का शक्ल ले लेगा.

एक बार में तीन तलाक़ की प्रथा का इस्तेमाल करने वाले के ख़िलाफ़ इसमें अधिकतम तीन साल की जेल और जुर्माने का प्रावधान है.

विधेयक को पेश करने के दौरान क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि यह मुस्लिम महिलाओं की समानता का विधेयक है. उन्होंने इसे राजनीति से नहीं जोड़ने और मजहब के तराजू पर नहीं तौलने की भी अपील की.

इस बिल का जमकर विरोध भी हुआ. एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने इसे मौलिक अधिकारों के हनन वाला बिल बताया. वहीं कांग्रेस ने इसमें कुछ खामियां बताते हुए इसे संसद की स्थायी समिति के पास भेजने की मांग की लेकिन सत्ता पक्ष ने इसे ठुकरा दिया. आरजेडी, टीएमसी, बीजेपी समेत कई दलों ने भी इस बिल की आलोचना की है.

इसके साथ ही देश में धर्म के नाम पर राजनीति का माहौल एक बार फिर गरमा गया है. ऐसा पहली बार नहीं है जब धर्म राजनीति के आड़े आया और उन तमाम मौकों पर तत्कालीन सरकारों ने क्या फैसले लिए, चलिये डालते हैं एक नज़र ऐसे ही कुछ ऐतिहासिक मौकों पर.

शाहबानो केस पर सियासत

एक बार में तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ बिल के मुद्दे पर शाहबानो केस बरबस ही सामने आ जाता है. शाहबानो केस धर्म का राजनीति पर असर का एक बड़ा उदाहरण भी है.

मध्य प्रदेश के इंदौर की रहने वाली पांच बच्चों की मां शाहबानो को सुप्रीम कोर्ट में केस जीतने के बाद भी अपने पति से हर्जाना नहीं मिल सका. कारण था मुस्लिम मामलों को लेकर हुई राजनीति.

देश में राजनीतिक माहौल गरमा गया. मुस्लिम धर्मगुरुओं को पारिवारिक और धार्मिक मामलों में अदालत का दख़ल मुस्लिम अधिकारों के लिए खतरा लगा.

1973 में बने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरज़ोर विरोध किया.

आखिरकार 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया.

हालांकि बिल पारित होने के बाद हिंदूवादी संगठनों ने राजीव गांधी पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाया था.

राजेंद्र प्रसाद ने किया सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन

भारत की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल न उठे इसलिए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के नवीनीकरण और पुनर्स्थापना का काम देख रही कमेटी से खुद को अलग कर लिया था.

पंडित नेहरू ने सौराष्ट्र (1960 से पहले गुजरात सौराष्ट्र राज्य का हिस्सा था) के तत्कालीन मुख्यमंत्री को मंदिर के निर्माण और उद्घाटन में सरकारी पैसा खर्च न करने का निर्देश दिया था.

नेहरू ने तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से मंदिर का उद्घाटन न करने का आग्रह किया था. उनका तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को मंदिर के उद्घाटन से बचना चाहिए.

हालांकि नेहरू का आग्रह दरकिनार कर राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर में शिव मूर्ति की स्थापना की थी.

रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में लिखा है, प्रधानमंत्री (नेहरू) सोचते थे कि सरकारी अधिकारियों को सार्वजनिक जीवन में धर्म या धर्मस्थलों से नहीं जुड़ना चाहिए. वहीं राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद मानते थे कि उन्हें सभी धर्मों के प्रति बराबर और सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए.

सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन के वक्त 1951 में राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि 'भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है लेकिन नास्तिक राष्ट्र नहीं'.

नेहरू ने पारित करवाया हिंदू कोड बिल

जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू हिंदुओं के पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए हिंदू आचार संहिता विधेयक लाने की कोशिश में थे, तब तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद इसके खुले विरोध में थे.

राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का कहना था कि लोगों के जीवन और संस्कृति को प्रभावित करने वाला कानून न बनाया जाए.

हिंदू महासभा और अन्य हिंदूवादी संगठनों ने भी इसका कड़ा विरोध किया था, लेकिन विरोध को दरकिनार करते हुए सरकार ने हिंदू आचार संहिता विधेयक पारित किया.

विधेयक का विरोध करने वालों ने तब तत्कालीन क़ानून मंत्री बीआर अंबेडकर के बारे में जातिसूचक टिप्पणियां की थीं और कहा था कि एक दलित को ब्राह्मणों के मामले में दखल नहीं देना चाहिए.

सिख दंगों पर राजीव गांधी का बयान

1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों ने हत्या कर दी. इसके बाद देशभर में सिख विरोधी दंगे हुए. दिल्ली समेत देश के कई इलाकों में हुए इन दंगों में हजारों सिखों की हत्या कर दी गई थी.

इंदिरा के जन्मदिवस 19 नवंबर 1984 को दिल्ली के बोट क्लब पर उनकी याद में रखी गई सभा में राजीव गांधी ने कहा था, 'इंदिराजी की हत्या के बाद देश के कुछ हिस्सों में दंगे हुए हैं. हम जानते हैं कि लोग बहुत गुस्से में थे और कुछ दिनों तक ऐसा लग रहा था जैसे पूरा भारत हिल गया हो. किसी बड़े पेड़ के गिरने के बाद उसके आसपास की धरती का हिलना स्वाभाविक है.'

तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के इस बयान को दंगों को जायज़ ठहराने की कोशिश के बतौर देखा जाता रहा है. इसके बाद हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने हिंदुओं के इकतरफा समर्थन के कारण 411 सीटें जीतीं.

बाबरी विध्वंस

छह दिसंबर 1992 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और शिवसेना जैसे हिंदुत्ववादी संगठनों के कारसेवकों ने अयोध्या की भूमि पर 16वीं शताब्दी से खड़ी बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया.

बाबरी विध्वंस से पहले और बाद में भीषण दंगे हुए, जिनमें कई हजार लोगों की जान गई.

जिस वक़्त बाबरी मस्जिद गिराई गई, उस वक़्त उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी और केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी.

छह दिसंबर को ही अयोध्या में इकट्ठे लाखों कारसेवकों को लालकृष्ण आडवाणी और संघ परिवार के कई अन्य नेताओं ने संबोधित किया था.

रैली से पहले आयोजकों ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन दिया था कि मस्जिद को नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा.

बाबरी विध्वंस की जांच के लिए गठित लिब्राहन आयोग ने 16 साल की पड़ताल के बाद जून 2009 में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बाबरी विध्वंस पूर्व नियोजित था.

गुजरात दंगों पर नारायणन की नसीहत

गुजरात दंगों के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने केंद्र सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कई पत्र लिखे थे.

हालांकि इन पत्रों को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया.

सूचना के अधिकार के तहत केंद्रीय सूचना आयोग ने इन पत्रों को सार्वजनिक करने का आदेश दिया था लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने जुलाई 2012 में सूचना आयोग के आदेश पर रोक लगा दी थी.

रेडिफ डॉट कॉम को 2005 में दिए एक साक्षात्कार में पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन ने माना था कि गुजरात दंगों में सरकार और प्रशासन ने मदद की थी.

नारायणन के मुताबिक उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को कई पत्र लिखकर और मुलाकात करके दंगे रोकने के लिए ठोस कदम उठाने के लिए कहा था लेकिन 'सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही.'

नारायणन का कहना था कि केंद्र सरकार के पास सेना भेजकर दंगे रोकने का संवैधानिक अधिकार और जिम्मेदारी थी.

नारायणन के मुताबिक केंद्र सरकार ने दंगों के दौरान देश के तमाम नागरिकों को सुरक्षा देने के अपने राजधर्म का पालन नहीं किया था.

जिन्ना पर आडवाणी की टिप्पणी

भारतीय जनता पार्टी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने 2005 की अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष नेता बताया था.

उन्होंने पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म जिन्ना के मजार पर रखी गेस्टबुक में लिखा था, 

"बहुत कम लोग होते हैं जो इतिहास बनाते हैं. क़ायद-ए-आज़म उन चुनिंदा लोगों में से एक हैं. सरोजिनी नायडू ने उन्हें हिंदू मुस्लिम एकता का दूत बताया था. उनका संबोधन एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की सशक्त सहभागिता है, जिसमें हर नागरिक को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार हो. देश नागरिकों के धर्म के आधार पर कोई फर्क नहीं करेगा. मैं इस महान व्यक्तित्व को सलाम करता हूं."

आडवाणी के इस बयान का भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कड़ा विरोध किया था. आडवाणी ने सफाई भी दी, लेकिन वो बेकार गई.

अंततः उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा, जिसे बाद में वापस ले लिया गया. इस विवाद से आडवाणी की छवि पर इतना असर हुआ कि उन्हें आख़िर पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना ही पड़ा.

बीबीसी

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