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नदी कथा -कुमार मंगलम

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Sunday, June 30, 2019



दिन ढ़लते 
शाम
तट पर पानी में पैर डाले
नदी किनारे 
रेत पर 
औंधा पड़ा है


नदी किनारे 
रेत के खूंटे में
बजड़ा बंधा है


नदी के
प्रवाह में प्रतिबिम्बित
एक बजड़ा और है


यूँ नदी ने
बजड़े का चादर ओढ़ रखा है


नदी के बीच धारा में
लौटते सूर्य की छाया


नदी के भाल को
सिंदूर तिलकित कर दिया है


यूँ नदी 
सुहागन हो गयी है।


नदी के तीर
एक शव जल रहा है


अग्नि शिखा
जल में 
शीतलता पा रही है।


सूर्योदय के वक्त
पश्चिम से
पूर्व की ओर देखता हूँ


नदी के गर्भ से
सूर्य बाहर आ रहा है।


नदी किनारे
एक लड़की
जल में पैर डाले


बाल खोले
उदास हो 
जल से अठखेलियाँ खेलती है


यूँ नदी से 
हालचाल पूछती है।


बीच धारा में
नाव
नहीं ठहरती 


नदी के बीच में
भँवर है


नदी
को देखा आज नंगा


पानी उसका 
कोई पी गया है


नदी अपने रेत में
अपने को खोजती


एक बुल्डोजर
उस रेत को ट्रक में भर कर 


नदी को शहर में 
पहुंचा रहा है।


नदी की अनगिनत
यादें हैं मन में


नदी अपने प्रवाह से
उदासी हर लेती है


उसकी उदासी को
हम नहीं हरते


शाम ढले
उल्लसित मन से
गया नदी से मिलने नदी तट


नदी मिली नहीं
शहर चुप था
उसे अपने पड़ोसी की
खबर नहीं थी


नदी में जल था
प्रवाह नहीं था


नदी किनारे लोग थे
शोर था
चमकीला प्रकाश था


नदी नहीं थी


लौटता कि
आखिरी साँस लेती
नदी सिसकती मिल गयी


उसने कहा
यह आखिरी मुलाक़ात हमारी


दर्ज कर लो
तुम्हारे प्यास से नहीं
तुम्हारे भूख से मर रही हूं


यूँ एक नदी मर गयी


और मेरी नदी कथा
समाप्त हुई


भारी मन से
प्यासा ही 
घर लौट आया।

अभिव्यक्ति -कुमार मंगलम

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आग के बीचों-बीच

चुनता हूँ अग्निकणों को
सोने के भरम में

रेत के
चमकते सिकते 
धँसाते हैं मुझको भीतर तक रेत में
पत्थर होता है वह

गहरे उतरता हूँ पानी में
तलाशता हूँ मोती
पर मिलता है सबार

सार्थकता की यह तलाश
हर बार निरर्थक हो जाता है
खोजता हूँ लगातार
पर नहीं पाता हूँ
जिसके लिए भटकता हूँ

अभिव्यक्ति या अपनी ही आवाज

की बेचैनी

जल संकट : कारण और निवारण

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Wednesday, June 26, 2019



आज भारत ही नहीं, तीसरी दुनिया के अनेक देश सूखा और जल संकट की पीड़ा से त्रस्त हैं। आज मनुष्य मंगल ग्रह पर जल की खोज में लगा हुआ है, लेकिन भारत सहित अनेक विकासशील देशों के अनेक गाँवों में आज भी पीने योग्य शुद्ध जल उपलब्ध नहीं है।




दुनिया के क्षेत्रफल का लगभग 70 प्रतिशत भाग जल से भरा हुआ है, परंतु पीने योग्य मीठा जल मात्र 3 प्रतिशत है, शेष भाग खारा जल है। इसमें से भी मात्र एक प्रतिशत मीठे जल का ही वास्तव में हम उपयोग कर पाते हैं। धरती पर उपलब्ध यह संपूर्ण जल निर्दिष्ट जलचक्र में चक्कर लगाता रहता है। सामान्यतः मीठे जल का 52 प्रतिशत झीलों और तालाबों में, 38 प्रतिशत मृदा नाम, 8 प्रतिशत वाष्प, 1 प्रतिशत नदियों और 1 प्रतिशत वनस्पति में निहित है। आर्थिक विकास, औद्योगीकरण और जनसंख्या विस्फोट से जल का प्रदूषण और जल की खपत बढ़ने के कारण जलचक्र बिगड़़ता जा रहा है। तीसरी दुनिया के देश इससे ज्यादा पीड़ित हैं। यह सच है कि विश्व में उपलब्ध कुल जल की मात्रा आज भी उतनी है जितनी कि 2000 वर्ष पूर्व थी, बस फर्क इतना है कि उस समय पृथ्वी की जनसंख्या आज की तुलना में मात्र 3 प्रतिशत ही थी।



सूखा अचानक नहीं पड़ता, यह भूकंप के समान अचानक घटित न होकर शनैः शनैः आगे बढ़ता है। जनसंख्या विस्फोट, जल संसाधनों का अति उपयोग/दुरुपयोग, पर्यावरण की क्षति तथा जल प्रबंधन की दुर्व्यवस्था के कारण भारत के कई राज्य जल संकट की त्रासदी भोग रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद 55 वर्षों में देश ने काफी वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति की है। सूचना प्रौद्योगिकी में यह एक अग्रणी देश बन गया है लेकिन सभी के लिए जल की व्यवस्था करने में काफी पीछे है। आज भी देश में कई बीमारियों का एकमात्र कारण प्रदूषित जल है।





विभिन्न वर्षों एवं विभिन्न क्षेत्रों में भारत में जल की माँग (बिलियन क्यूबिक मीटर)
क्षेत्र
वर्ष
2000
2025
2050
घरेलू उपयोग
42
73
102
सिंचाई
541
910
1072
उद्योग
08
22
63
ऊर्जा
02
15
130
अन्य
41
72
80
कुल
634
1092
1447
स्रोतः सेंट्रल वाटर कमीशन बेसिन प्लानिंग डारेक्टोरेट, भारत सरकार 1999

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में जल की माँग निरंतर बढ़ती जा रही है। आने वाले वर्षों में जल संकट बद से बदतर होने वाला है।

राष्ट्रीय जलनीति 1987 के अनुसार, जल प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है। यह मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है और बहुमूल्य संपदा है। प्रकृति ने हवा और जल प्रत्येक जीव के लिए निःशुल्क प्रदान किए हैं। लेकिन आज अमीर व्यक्तियों ने भूजल पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया है। भारत में बढ़ते हुए जल संकट के कुछ मुख्य कारण निम्नानुसार हैं : 

1. भारत में कानून के तहत भूमि के मालिक को जल का भी मालिकाना हक दिया जाता है जबकि भूमिगत जल साझा संसाधन है।
2. बोरवेल प्रौ़द्योगिकी से धरती के गर्भ से अंधाधुंध जल खींचा जा रहा है। जितना जल वर्षा से पृथ्वी में समाता है, उससे अधिक हम निकाल रहे हैं।
3. साफ एवं स्वच्छ जल भी प्रदूषित होता जा रहा है।
4. जल संरक्षण, जल का सही ढंग से इस्तेमाल, जल का पुनः इस्तेमाल और भूजल की रिचार्जिंग पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
5. राजनैतिक एवं प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी, गलत प्राथमिकताएँ, जनता की उदासीनता एवं सबसे प्रमुख ऊपर से नीचे तक फैली भ्रष्टाचार की संस्कृति। जल संसाधन वृद्धि योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद समस्याग्रस्त गाँवों की संख्या उतनी की उतनी ही बनी रहती है।


हमारे देश की औसत वर्षा 1170 मि.मी. है जो विश्व के समृद्धशाली भाग पश्चिमी अमेरिका की औसत वर्षा से 6 गुना ज्यादा है। यह तथ्य सिद्ध करता है कि किसी क्षेत्र की समृद्धि वहाँ की औसत वर्षा की समानुपाती नहीं होती। प्रश्न यह है कि आने वाली वर्षा के कितने भाग का हम प्रयोग करते हैं, और कितने भाग को हम बेकार जाने देते हैं। बारिश के पानी को जितना ज्यादा हम जमीन के भीतर जाने देकर भूजल संग्रहण करेंगे उतना ही हम जल संकट को दूर रखेंगे और मृदा अपरदन रोकते हुए देश को सूखे और अकाल से बचा सकेंगे। अतः आवश्यकता है वर्षा की एक-एक बूँद का भूमिगत संग्रहण करके भविष्य के लिए एक सुरक्षा निधि बनाई जाए।

एक आँकड़े के अनुसार यदि हम अपने देश के जमीनी क्षेत्रफल में से मात्र 5 प्रतिशत में ही गिरने वाले वर्षा के जल का संग्रहण कर सके तो एक बिलियन लोगों को 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मिल सकता है।

वर्तमान में वर्षा का 85 प्रतिशत जल बरसाती नदियों के रास्ते समुद्र में बह जाता है। इससे निचले इलाकों में बाढ़ आ जाती है। यदि इस जल को भू-गर्भ की टंकी में डाल दिए जाए तो दो तरफा लाभ होगा। एक तो बाढ़ का समाधान होगा, दूसरी तरफ भूजल स्तर बढ़ेगा। अतः जल संग्रहण के लिए ठोस नीति एंव कदम की आवश्यकता है।

इस संदर्भ में अमेरिका में टैनेसी वैली अथॉरिटी ने ऐसा ही कर दिखाया है। वहाँ बाँध में मिट्टी के भराव की समस्या थी। ऊपर से मिट्टी कटकर आ रही थी। इससे तालाब की क्षमता घट रही थी। इसे रोकने के लिए वहाँ की सरकार ने कानून बनाया कि हर किसान अपने खेत पर अमुक ऊंचाई की मेढ़बंदी करेगा। परिणाम यह हुआ कि वर्षा का जल हर खेत में ठहरने लगा। मिट्टी हर खेत में रुक गई और केवल साफ पानी बाँध में आया। हमारे यहाँ भी इस प्रकार का कानून बनना चाहिए कि हर किसान अमुक ऊंचाई तक मेढ़बंदी करेगा। इसकी ऊंचाई इतनी हो कि फसल को नुकसान न हो। इससे वर्षा का जल अधिक समय तक खेत पर रुकेगा और भूजल स्तर भी बढ़ेगा।

हमारे देश में भी अनेक समाजसेवी सरकारी सहायता की अपेक्षा के बिना ही जल संरक्षण एवं जल संग्रहण जैसे पुनीत कार्य में जुट गए हैं। औरंगाबाद (महाराष्ट्र) जिले के रालेगाँव सिद्धी के श्री अन्ना हजारे, हिमालय क्षेत्र के श्री सुन्दरलाल बहुगुणा और उनका अभियान तथा रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित तरुण भारत संघ, राजस्थान के श्री राजेन्द्र सिंह आदि के अथक प्रयासों ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि जल संकट के समाधान में पूरे समुदाय की संलग्नता से कोई भी कार्य असंभव नहीं है। श्री राजेन्द्र सिंह और उनके समूह ने 1985 से आज तक 45000 से अधिक जल संरक्षण क्षेत्र बनाए हैं।

पश्चिमी राजस्थान और मिजोरम में अधिकांश घरों में जमीन के भीतर गोल बड़ी-बड़ी टंकियां बनाई जाती हैं। घरों की ढलानदार छतों से वर्षा का पानी पाइपों के द्वारा इन टंकियों में जाता है। पानी ठंडा रखने के लिए इन टंकियों को टाइलों से ढका जाता है। पानी उपलब्ध न होने पर ही इस पानी का उपयोग किया जाता है।

यहाँ पश्चिमी गुजरात का उदाहरण सबसे अनूठा है। बिचियावाड़ा नामक गाँव में लोगों ने मिलकर 12 चैक बाँध बनाए हैं। इन बाँधों पर डेढ़ लाख रुपए की लागत आई। इन बाँधों से वे 3000 एकड़ भूमि की आसानी से सिंचाई कर सकते हैं। इसी तरह भावनगर जिले के खोपाला गाँव के लोगों ने 210 छोटे-छोटे बाँध बनाए हैं। इनके परिणाम भी शीघ्र सामने आ गए हैं। औसत से भी कम वर्षा होने पर भी यहाँ की नहरें वर्ष भर ऊपर तक भरी रहती हैं।

पग-पग रोटी, डग-डग नीर वाला मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र भी जल संकट की त्रासदी से गुजर रहा है। हालांकि शासन के प्रयासों से जनचेतना का श्रीगणेश हुआ है। झाबुआ जिले में 1995 में राज्य शासन ने वर्षा का पानी इकट्ठा करने और जल संरक्षण के लिए एक विशद कार्यक्रम तैयार किया। इससे यहाँ 1000 से अधिक चैक बाँध, 1050 टैंक और 1000 लिफ्ट सिंचाई योजनाएँ चल रही हैं। शासन और जनता के सहयोग से ऐसे प्रयास हर जिले में होने चाहिए।

मध्य प्रदेश में जनभागीदारी से पानी रोको अभियान के तहत जो बहुत से प्रयोग किए गए हैं इनमें उज्जैन जिले में डबरियां बनाकर खेती के पानी की व्यवस्था करने का प्रयोग अनूठा है। खेत का पानी खेत में रोकने की सरंचना का नाम ‘डबरी’ है। सिंचाई को विशाल स्तरीय तथा मध्यम स्तरीय योजनाओं की तुलना में इसे अति लघु योजना कहा जाएगा। इसकी औसत लागत 21 हजार रुपए है और उसका 85 प्रतिशत भाग कृषक स्वयं वहन करता है। शासन को केवल 15 प्रतिशत अंशदान देना है। एक डबरी बनाने में 12 हजार रुपए की कीमत वाली जमीन चाहिए। लगभग 33 फुट चौड़ा, 66 फुट लंबा तथा 5 फुट गहरा गड्डा खोदा जाता है तथा मिट्टी व पत्थर से पीचिंग तैयार की जाती है। कुल 10907 घन फुट क्षेत्र की डबरी तैयार की जाती है। इसमें पानी को एकत्रित कर खेत की जरूरत पूरी हो सकती है। पानी रोकने पर आस-पास का भूजल स्तर भी अपने-आप बढ़ जाता है। जमीन की कीमत के अलावा गड्ढा खोदने व पीचिंग आदि में 7700 रुपए का खर्च अनुमानित है। इसमें से 4700 रुपए किसान तथा 3000 रुपए की कीमत का अनाज शासन देने को तैयार है। यानी 4700 रुपए लगाकर डबरी बनाई जा सकती है। फिलहाल उज्जैन जिलें में ऐसी 50 हजार डबरिया इस वर्ष बनाने का लक्ष्य रखा गया है।

डबरी अभियान इसलिए सराहनीय है कि इसमें किसान को अपनी जमीन पर स्वयं ही डबरी बनाना है। डबरी का प्रबंध तथा उपयोग भी वह स्वयं ही करने वाला है। निजीकरण का यह एक अच्छा उदाहरण है। इसमें आधुनिक यंत्रीकृत तकनीकों का प्रयोग करना भी जरूरी नहीं है। पानी रोको अभियान में जनभागिता का यह श्रेष्ठ उदाहरण है। उज्जैन जिले के इस अभियान का अनुकरण अन्य राज्यों तथा जिलों के कृषकों को भी करना चाहिए।


जल संकट निवारण के लिए कुछ मुख्य सुझाव निम्नानुसार है : 

1. जल का संस्कार समाज में हर व्यक्ति को बचपन से ही स्कूलों में दिया जाना चाहिए।
2. जल, जमीन और जंगल तीनों एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। इन्हें एक साथ देखने, समझने और प्रबंधन करने की आवश्कयता है।
3. जल संवर्धन/संरक्षण कार्य को सामाजिक संस्कारों से जोड़ा जाना चाहिए।
4. जल संवर्धन/संरक्षण के परंपरागत तरीकों की ओर विशेष ध्यानाकर्षण करना।
5. भूजल दोहन अनियंत्रित तरीके से न हो, इसके लिए आवश्यक कानून बनना चाहिए।
6. तालाबों और अन्य जल संसाधनों पर समाज का सामूहिक अधिकार होना चाहिए। अतः इनके निजीकरण पर रोक लगनी चाहिए।
7. मुफ्त बिजली योजना समाप्त की जाए।
8. नदियों और तालाबों को प्रदूषण मुक्त रखा जाए।
9. नदियों और नालों पर चैक डैम बनाए जाए, खेतों में वर्षा पानी को संग्रहीत किया जाए।

आज विश्व में तेल के लिए युद्ध हो रहा है। भविष्य में कहीं ऐसा न हो कि विश्व में जल के लिए युद्ध हो जाए। अतः मनुष्य को अभी से सचेत होना होगा। सोना, चांदी और पेट्रोलियम के बिना जीवन चल सकता है, परंतु बिना पानी के सब कुछ सूना और उजाड़ होगा। अतः हर व्यक्ति को अपनी इस जिम्मेदारी के प्रति सचेत रहना है कि वे ऐसी जीवन शैली तथा प्राथमिकताएं नहीं अपनाएं जिसमें जीवन अमृतरूपी जल का अपव्यय होता हो। भारतीय संस्कृति में जल का वरुण देव के रूप में पूजा-अर्चना की जाती रही है, अतः जल की प्रत्येक बूँद का संरक्षण एवं सदुपयोग करने का कर्तव्य निभाना आवश्यक है।


[लेखक नीमच (म.प्र.) के सीताराम जाजू शासकीय कन्या महाविद्यालय में विभागाध्यक्ष (अर्थशास्त्र) हैं] 

Author : प्रकाश चंद्र रांका
Source : योजना, जून 2003

क्या मात्र पीड़ित महिला की गवाही के आधार पर बलात्कार का आरोप सिद्ध किया जा सकता है?

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भारतीय कानून का यह स्थापित नियम है कि भारतीय दंड संहिता की धारा ३७६ के तहत बलात्कार का अपराध, पीड़ित महिला की एकमात्र गवाही (sole testimony) के आधार पर साबित किया जा सकता है जब तक कि सम्पुष्टि (corroborative evidence) के लिए प्रभावशाली कारण न उपलब्ध हो.

एक गवाह जिसे घटित घटना की वजह से क्षति पहुंची है, उसे एक मुनासिब गवाह माना जाता है, (बशर्ते वह क्षति उसने स्वयं ना पहुंचायी हो) क्योंकि ऐसा गवाह असली अपराधी को बचाएगा, ऐसी संभावना बहुत कम है. ठीक इसी तरह बलात्कार के अपराध की पीड़ित की गवाही भी एक प्रभावशाली गवाही है, भले ही फिर सम्पुष्टि के लिए साक्ष्य न उपस्थित हो. सम्पुष्टि बलात्कार के मामलों में अनिवार्य नहीं है. 

हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम आशा राम (AIR 2006 SC 381) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि- 


"यह विधि की निर्धारित स्थिति है कि अभियोक्त्री की एकमात्र गवाही के आधार पर अभियुक्त को दोषी ठहराया जा सकता है. एक अभियोक्त्री का बयान पीड़ित गवाह से ज्यादा विश्वसनीय होता है. एक पीड़ित महिला की गवाही बेहद महत्वपूर्ण गवाही होती है . जब तक कि अकाट्य कारणों की वजह से सम्पुष्टि करने वाले साक्ष्यों की आवश्यकता कोर्ट को न महसूस हो, कोर्ट अभियुक्त को मात्र पीड़ित महिला की गवाही पर दोषी करार दे सकता है अगर उसका बयान भरोसा जगाने वाला विश्वसनीय बयान हो. सम्पुष्टि करने वाले साक्ष्यों की मांग करना कानूनी अनिवार्यता न है बल्कि वह मात्र मामले की परिस्थितियों को देखते हुए अपनाया गया एक सावधान और विवेक आधारित कदम है. पीड़ित महिला/ अभियोक्त्री का बयान एक पीड़ित गवाह से भी अधिक विश्वसनीय है. अभियोक्त्री के बयान के छोटे-मोटे विरोधाभास और गैर- मामूली विसंगतियाँ एक अन्यथा भरोसे के लायक केस को ख़त्म नहीं कर सकती." 

महाराष्ट्र बनाम चंद्रप्रकाश केवलचंद जैन (AIR 1990 SC 658) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि- 


"'साक्ष्य' का मतलब है और उसमें शामिल है, गवाहों द्वारा मामले के तथ्यों के सम्बन्ध में दिए गए वे सभी बयान जिनकी प्रस्तुति की आज्ञा कोर्ट देती है या जिनकी प्रस्तुति की जरुरत कोर्ट को महसूस होती है. धारा ५९ के तहत डाक्यूमेंट्स की विषयवस्तु को छोड़ कर सभी तथ्य मौखिक साक्ष्यों द्वारा साबित किये जा सकते है. धारा ११८ हमें बताती है कि कौन मौखिक साक्ष्य दे सकते है. इस धारा के तहत कोई भी व्यक्ति गवाही दे सकता है, सिवाय तब जब कोर्ट यह मानती हो कि वह व्यक्ति कम उम्र, बुढ़ापे, मानसिक या शारीरिक बीमारी या किसी अन्य कारण से पूछे गए सवालों को नहीं समझ सकता या फिर उनके विवेकपूर्ण रूप से जवाब नहीं दे सकता. यहाँ तक कि एक सह-अपराधी भी धारा १३३ के तहत अभियुक्त के खिलाफ गवाही दे सकता है और मात्र इस आधार पर कि अभियुक्त को सह-अपराधी की असम्पुष्ट गवाही पर दोषी ठहराया गया है, यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा निर्णय कानूनी रूप से गलत है. हालांकि धारा ११४ के दृष्टान्त (ख) (Illustration–b) के तहत एक व्यावहारिक नियम (rule of practice) बताया गया है कि कोर्ट यह उपाधारण कर सकता है ( 'may' presume) कि एक सह- अपराधी विश्वसनीयता के योग्य नहीं है जब तक कि तात्विक विशिष्टियों में उसकी सम्पुष्टि नहीं होती ( unless corroborated in material particulars)। अत: धारा १३३ के तहत यह कानून है कि एक सह-अपराधी सक्षम गवाह/साक्षी है एवं मात्र उसके अकेले बयान पर बिना किसी सम्पुष्टि के अभियुक्त को दोषी सिद्ध किया जा सकता है. ऐसा करना गैर- कानूनी नहीं होगा, हालांकि व्यावहारिक नियम के तौर पर धारा ११४ के दृष्टान्त (ख) के तहत कोर्ट सम्पुष्टि की जरुरत महसूस कर सकती है. धारा १३३ और धारा ११४ के दृष्टान्त (ख) का सामूहिक प्रभाव यही है. " 

यौन अपराध की पीड़ित महिला को एक सह-अपराधी की तरह नहीं देखा जा सकता. साक्ष्य विधि यह कहीं नहीं कहती है कि उसका बयान बिना सम्पुष्टि के स्वीकार नहीं किया जा सकता. धारा ११८ के वह निश्चित रूप से एक सक्षम गवाह है और उसके बयान को शारीरिक हिंसा के पीड़ित एक घायल गवाह के बराबर माना जाना चाहिए. उसके बयान को भी उसी सावधानी और एहतियात से देखा जाना चाहिए जिस सावधानी और एहतियात से एक घायल गवाह के बयान को देखा जाता है, उसे इससे अधिक सावधानी की आवश्यकता नहीं है. जरुरत इस बात की है कि कोर्ट इस बात के प्रति जागरूक रहे कि वह एक घायल पीड़ित व्यक्ति जिसने स्वयं अभियोग चालू किया है और जो मामले के फैसले के प्रति अनुरक्त होगा, ऐसे व्यक्ति के बयान को देख रहा है. अगर कोर्ट इस बात की ओर जागरूक है और पीड़ित महिला की गवाही से संतुष्ट महसूस करता है तो ऐसा कोई कानून या व्यावहारिक नियम नहीं है कि कोर्ट को धारा ११४, दृष्टान्त (ख) की तर्ज़ पर सम्पुष्टि करने वाले बयानों की जरुरत है. अगर किसी कारणवश कोर्ट पूर्ण रूप से अभियोक्त्री की असम्पुष्ट गवाही पर विश्वास करने में संशय महसूस करती है तो उसके बयान की सम्पुष्टि के लिए साक्ष्यों की मांग कर सकती है ताकि अभियोक्त्री के बयान पर विश्वास किया जा सके. 

अभियोक्त्री के बयान की सम्पुष्टि के लिए कौनसे प्रकृति के साक्ष्यों की आवश्यकता है, यह मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है. पर अगर अभियोक्त्री बालिग़ है और पूरी समझ रखती है तो कोर्ट उसके बयान को आधार बना अभियोक्ता को दोषी करार दे सकती है जब तक कि उसका बयान अविश्वसनीय न हो. अगर मामले की परिस्थितियों को पूर्णरूपेण देखने पर यह प्रकट होता हो कि अभियोक्त्री के पास अभियुक्त के खिलाफ झूठा मामला दयार करने का कोई इरादा नहीं है तब सामान्यत: कोर्ट को उसकी गवाही को स्वीकार करने में कोई संशय नहीं होना चाहिए. 

सुप्रीम कोर्ट ने रामेश्वर बनाम राजस्थान राज्य  मामले में यह कहा था कि संपुष्टि (corroboration), बलात्कार के मामलों में एक अपरिहार्य आवश्यकता नहीं है। कोर्ट की यह बात 30 साल बीतने के बाद भी एक बार फिर से दोहरायी जा सकती है।

रामेश्वर मामले में कोर्ट के कथन को 3 दशकों के समय के अंतराल में जस्टिस विवियन बोस के असीम शब्दों में, जिन्होंने इस निर्णय को पीठ की ओर से लिखा और अतीत को बदल के रख दिया, फिर से दोहराया जा सकता है। कोर्ट की ओर से निर्धारित किया गया यह नियम, जो अब कानून में परिवर्तित हो गया है, वह यह नहीं है कि मामले में सजा होने से पहले, संपुष्टि आवश्यक है, बल्कि यह है कि विवेक की आवश्यकता के रूप में, संपुष्टि की आवश्यकता है। हालांकि यह नियम उस मामले में लागू नहीं होगा, जहां न्यायाधीश के मुताबिक, परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि संपुष्टि की आवश्यकता न हो।कानूनी नियम यह है कि निर्णय लेते समय जज या जूरी को सावधानी आधारित इस नियम के प्रति सजग होने चाहिए, यह नियम नहीं है कि अपराध सिद्धि के लिए हर मामले में सम्पुष्टि की ही जाये.


कारण


भरवाड़ा भोगिनभाई हीरजीभाई बनाम गुजरात राज्य (1983 (3) SCC 217) मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निम्नलिखित बात कही गई- 

भारतीय परिस्थितियों में सम्पुष्टि के बिना पीड़ित महिला की गवाही पर एक्शन लेने से मना करना पीड़ित के जख्मों को और अपमानित करने जैसा है. एक महिला या लड़की जो यौन अपराध की शिकायत करती है उसे क्यों शक, अविश्वास और संशय की नज़रों से देखा जाये. ऐसा करना एक पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दुराग्रहों को उचित ठहरना होगा. अतिशयोक्ति के भय के बिना यह बात कही जा सकती है कि भारतीय परिस्थितियों में शायद ही कोई महिला यौन शोषण का झूठा मामला दायर करेगी. यह बात गाँवों और शहरों दोनों के लिए लागू होती है. कभी-कभार ही अपवाद इका-दुक्का ऐसे मामले आते है और वो भी अधिकांशत: शहरी अभिजात वर्ग में. क्योंकि- 


  • भारतीय पारम्परिक समाज में एक महिला या लड़की ऐसी किसी घटना के बारे में जो उसके शील पर सवाल उठती हो, स्वीकार करने में भी हिचकिचाएगी.
  • वह इस खतरे के बारे में जागरूक होगी कि उसे समाज, अपने खुद के मित्रों, परिवार, रिश्तेदारों की ओर से बहिष्कार झेलना पड़ सकता है.
  • उसे सारे समाज के विरुद्ध बहादूरी दिखानी होगी.
  • उसे अपने परिवार, अपने स्वयं के पति, रिश्तेदारों और वैवाहिक घर का प्यार और सम्मान खोने का जोखिम उठाना होगा.
  • अगर वह विवाहित नहीं है तो उसे एक सम्मानजनक परिवार से उचित रिश्ता पाने में होने वाली मुश्किलों का भी भय होगा.
  • यह सब उसे अपरिहार्य रूप से मानसिक पीड़ा पहुँचायेगा.
  • उपहास का पात्र बनने का भय हमेशा बना रहेगा.
  • एक पारम्परिक समाज में जहाँ सेक्स एक प्रतिबंधित विषय है वहाँ अपने साथ हुई ऐसी घटना के बारे में दूसरों को बताने में उसे काफी संकोच महसूस होगा.
  • प्राकृतिक तौर पर उसका प्रयास यह होगा की मामले को अधिक चर्चा न किया जाये वरना परिवार के नाम और मान-सम्मान को हानि पहुंचेगी.
  • एक अविवाहित महिला के अभिभावक और एक विवाहित महिला के पति और उसके परिवार वाले परिवार के नाम और सम्मान को ठेस पहुंचने से बचाने के लिए घटना के किसी भी प्रकाशन से बचना चाहेंगे. 
  • पीड़ित महिला किसी भी प्रकार से स्वयं को गैर-मर्यादित माने जाने से भयभीत होगी हालाँकि उसके साथ हुई घटना में उसकी कोई गलती न हो.
  • पुलिस द्वारा पूछताछ, कोर्ट, विपक्ष के वकील द्वारा क्रॉस एग्जामिनेशन, और फिर विश्वास नहीं कियेजाने का भय - ये सभी एक महिला को मामले को रिपोर्ट करने से रोकते है.
इस सब कारणों के चलते पीड़ित महिला और उसके परिवार वाले मामले की शिकायत कर दोषियों के विरुद्ध उचित कार्यवाही करने से डरते हैं. इसलिए जब इन सब कारणों के बाद भी अगर कोई अभियोग दायर किया जाता है तो संभवत: मामला झूठा नहीं, वास्तविक होगा.


पीड़ित महिला सह-अपराधी नहीं है- 

महाराष्ट्र बनाम चंद्रप्रकाश केवलचंद जैन (AIR 1990 SC 658) 
मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि- 


यौन अपराध की पीड़ित महिला को एक सह-अपराधी की तरह नहीं देखा जा सकता. साक्ष्य विधि यह कहीं नहीं कहती है कि उसका बयान बिना सम्पुष्टि के स्वीकार नहीं किया जा सकता. धारा ११८ के वह निश्चित रूप से एक सक्षम गवाह है और उसके बयान को शारीरिक हिंसा के पीड़ित एक घायल गवाह के बराबर माना जाना चाहिए. उसके बयान को भी उसी सावधानी और एहतियात से देखा जाना चाहिए जिस सावधानी और एहतियात से एक घायल गवाह के बयान को देखा जाता है, उसे इससे अधिक सावधानी की आवश्यकता नहीं है. जरुरत इस बात की है कि कोर्ट इस बात के प्रति जागरूक रहे कि वह एक घायल पीड़ित व्यक्ति जिसने स्वयं अभियोग चालू किया है और जो मामले के फैसले के प्रति अनुरक्त होगा, ऐसे व्यक्ति के बयान को देख रहा है. अगर कोर्ट इस बात की ओर जागरूक है और पीड़ित महिला की गवाही से संतुष्ट महसूस करता है तो ऐसा कोई कानून या व्यावहारिक नियम नहीं है कि कोर्ट को धारा ११४, दृष्टान्त (ख) की तर्ज़ पर सम्पुष्टि करने वाले बयानों की जरुरत है. अगर किसी कारणवश कोर्ट पूर्ण रूप से अभियोक्त्री की असम्पुष्ट गवाही पर विश्वास करने में संशय महसूस करती है तो उसके बयान की सम्पुष्टि के लिए साक्ष्यों की मांग कर सकती है ताकि अभियोक्त्री के बयान पर विश्वास किया जा सके. अभियोक्त्री के बयान की सम्पुष्टि के लिए कौनसे प्रकृति के साक्ष्यों की आवश्यकता है, यह मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है. पर अगर अभियोक्त्री बालिग़ है और पूरी समझ रखती है तो कोर्ट उसके बयान को आधार बना अभियोक्ता को दोषी करार दे सकती है जब तक कि उसका बयान अविश्वसनीय न हो. अगर मामले की परिस्थितियों को पूर्णरूपेण देखने पर यह प्रकट होता हो कि अभियोक्त्री के पास अभियुक्त के खिलाफ झूठा मामला दयार करने का कोई इरादा नहीं है तब सामान्यत: कोर्ट को उसकी गवाही को स्वीकार करने में कोई संशय नहीं होना चाहिए


अभियोक्त्री की गवाही पीड़ित गवाह (injured witness) के बराबर है- 

सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में कहा है कि यौन-शोषण, बलात्कार के मामले में पीड़ित महिला की गवाही एक पीड़ित/घायल विटनेस के समान है.

एक गवाह जिसे घटित घटना की वजह से क्षति पहुंची है, उसे एक मुनासिब गवाह माना जाता है, (बशर्ते वह क्षति उसने स्वयं ना पहुंचायी हो) क्योंकि ऐसा गवाह असली अपराधी को बचाएगा, ऐसी संभावना बहुत कम है. ठीक इसी तरह बलात्कार के अपराध की पीड़ित की गवाही भी एक प्रभावशाली गवाही है, भले ही फिर सम्पुष्टि के लिए साक्ष्य न उपस्थित हो. शारीरिक हिंसा के मामलों में प्रत्यक्षदर्शी गवाह द्वारा सम्पुष्टि संभव हो सकती है, पर बलात्कार के मामलों में अपराध के प्रकृति को देखते हुए प्रत्यक्षदर्शी गवाह की संभावना कम है. अत: पश्चिमी देशों के कोर्ट द्वारा बनाये गए नियम की देखा-देख एक पीड़ित महिला की गवाही की सम्पुष्टि की माँग करना पीड़ित महिला के जख्मों का और अपमान करने जैसा होगा. इस नियम को एक आदत की तरह अनुसरण करना शायद औपनिवेशिक सोच का नतीजा है.


गौण या छोटे-मोटे विरोधाभास पीड़ित महिला की गवाही के लिए महत्वपूर्ण नहीं है- 

पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह (1996 (2) SCC 384 ) सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण बिंदु बताये कि – 


बलात्कार मात्र शारीरिक हिंसा नहीं है बल्कि वह पीड़ित महिला के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ठेस पहुँचाता है. एक हत्यारा पीड़ित के शरीर को चोट पहुँचाता है, जबकि बलात्कार एक असहाय महिला की आत्मा को ठेस पहुँचाता है. अत: कोर्ट को बलात्कार के मामलों में बहुत जिम्मेदारी के साथ देखना चाहिए. कोर्ट को इन मामलों को पूरी संवेदनशीलता के साथ संभालना चाहिए. कोर्ट को मामले की संभावनाओं को पूर्णरूपेण देखना चाहिए. गौण या छोटे-मोटे विरोधाभास जो मामले को सीधे तौर पर प्रभावित नहीं करते, मात्र उनके आधार पर एक अन्यथा विश्वसनीय मामले को अविश्वसनीय करार नहीं दिया जा सकता. अगर अभियोक्त्री की गवाही विश्वास जगाती हो तो बिना सम्पुष्टि के भी उसकी गवाही पर भरोसा किया जा सकता है. और इसी कारण के आधार पर अगर अभियोक्त्री की गवाही विश्वास नहीं जगाती तो कोर्ट सम्पुष्टि के लिए और साक्ष्य माँग सकती है. अभियोक्त्री की गवाही पूरे मामले के परिप्रेक्ष्य को देखते हुए स्वीकार या अस्वीकार की जानी चाहिए. यौन हिंसा के मामलों को कोर्ट को पूर्ण जिम्मेदारी और संवेदनशीलता के साथ देखना चाहिए.

पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि साक्ष्यों का मूल्यांकन करते समय कोर्ट को इस बात के प्रति जागरूक रहना होगा कि कोई भी आत्म-सम्मान रखने वाली महिला स्वयं अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ अपने पर बलात्कार जैसी अपमानजनक बात नहीं करेगी. गौण या छोटे-मोटे विरोधाभास जो मामले को सीधे तौर पर प्रभावित नहीं करते, मात्र उनके आधार पर एक अन्यथा विश्वसनीय मामले को अविश्वसनीय करार नहीं दिया जा सकता. महिलाओं का सामान्यत: संकोची स्वभाव और यौन हिंसा छुपाने की उनकी प्रवृति को कोर्ट को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए. 


सम्पुष्टि (Corroboration) कब जरुरी है?

यह कानून की स्थापित स्थिति है कि सम्पुष्टि कानून की एक अपरिहार्य जरुरत नहीं है, बल्कि यह सावधानी और विवेक आधारित एक व्यावहारिक नियम है. (हिमाचल प्रदेश बनाम आशा राम 2006 SC 381 : 2006 SCC (Cri) 296

भरवाड़ा भोगिनभाई हीरजीभाई बनाम गुजरात राज्य  मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निम्नलिखित बात कही गई- 

"हमारा अत: यह मत है कि पीड़ित की गवाही किसी आधारभूत असक्षमता से नहीं ग्रसित है, वह संभावनाओं के आधार पर अविश्वसनीय नहीं करार दी जा सकती. सामान्यत: मेडिकल साक्ष्यों को छोड़कर (उन स्थितियों में जहाँ मेडिकल साक्ष्य संभव है) किसी तरह की सम्पुष्टि की आवश्यकता नहीं है. हालांकि एक प्रतिबंधता निम्नलिखित है- 


"संपुष्टि की मांग तब की जा सकती है जब महिला गैर-मुनासिब स्थिति में मिली हो, तब हो सकता है कि महिला ने आत्म-रक्षण की दृष्टि से आरोप लगाए हो. या फिर जब "संभावना आधारित" कारक नहीं हो."

सदाशिव राव माधव राव हड़बे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2006 (10) SCC 92) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि एकमात्र पीड़ित महिला की गवाही पर भी भरोसा किया जा सकता है अगर गवाही कोर्ट का कॉन्फिडेंस जगा सके:


"यह सत्य है कि बलात्कार के मामले में अभियुक्त को मात्र अभियोक्त्री की गवाही के आधार पर दोषी करार दिया जा सकता है. पर अगर अभियोक्त्री का बयान किसी मेडिकल साक्ष्य में समर्थन नहीं पाता है और मामले की पूर्ण परिस्थितियों को देखते हुए अभियोक्त्री का बयान संभव नहीं प्रतीत होता तो कोर्ट को मात्र अभियोक्त्री के बयान पर एक्शन नहीं लेना चाहिए. कोर्ट को, उन मामलों में जहाँ पूरा मामला असंभव सा लगे, बेहद सावधानीपूर्वक अभियोक्त्री की गवाही पर भरोसा करना चाहिए. 


अदालतों द्वारा क्या टेस्ट लगाया जाए ?

क्यों एक महिला या लड़की जो बलात्कार या यौन हिंसा का आरोप लगाती है, उसके बयान को अविश्वास व संदेह के साथ देखा जाना चाहिए? कोर्ट सबूतों का मूल्यांकन करते समय पीड़ित महिला के बयान दृढ करने वाले कुछ सबूतों को देख सकती है ताकि जुडिशियल माइंड संतुष्ट हो सके पर कानूनन ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि अभियुक्त को दोषी साबित करने के लिए corroborative evidence अनिवार्य रूप से पेश किये जाए. यौन शोषण से पीड़ित महिला की गवाही पीड़ित गवाह (injured witness) के समान ही होती है, बल्कि कई बार उससे अधिक भरोसे के लायक होती है. 

सम्पुष्टि की जरुरत कानूनी रूप से अनिवार्य नहीं है बल्कि मामले की परिस्थितियों को देखते हुए अपनाया गया एक सावधान और विवेक आधारित कदम है. यह ध्यान रखने योग्य बात है कि यौन अपराध की पीड़ित महिला बलात्कार के अपराध की सह- अपराधी नहीं है, बल्कि वह एक अन्य व्यक्ति की हवस की पीड़ित महिला है. यह पूर्णत: अवांछित और अनुचित होगा अगर पीड़ित महिला को सह-अपराधी की तरह देखा जाये और उसके बयान को संदेहपूर्ण नज़रों से देखा जाये. किसी भी तरह का निर्णय मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए यथार्थवादी विभिन्नताओं को ध्यान में रखकर लिया जाना चाहिए. एक प्रकार की सार्वभौमिकता अगर हर मामले में लगाई जाये तो न्याय के विरुद्ध एक साक्ष्य आधारित निरंकुशता पैदा होगी. कोर्ट सम्पुष्टि की जरुरत को जबरन पकड़ कर नहीं बैठ सकते अगर अभियोक्त्री की गवाही से कोर्ट का विश्वास जागृत होता है. (रंजीत हज़ारिका बनाम असम राज्य (1998) 8 SCC 635


सुप्रीम कोर्ट की तरफ से दी गयी एहतियात – 

सुप्रीम कोर्ट ने राजू बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2008 (15) SCC 133) में कहा कि सामान्यत: पीड़ित महिला की गवाही को संदेहास्पद न मान कर, उस पर भरोसा किया जाना चाहिए। उसके बयान को एक पीड़ित गवाह के बराबर मानना चाहिए, अगर उसका बयान भरोसे के लायक है तो उसके बयान की सम्पुष्टि करवाना जरुरी नहीं है. पर यह सिद्धांत सार्वभौमिक रूप से नहीं लागू किया जा सकता. इस नियम को यंत्रवत लागू करने के बजाय हर मामले के तथ्यों और परिस्थितयों को ध्यान में रख कर लागू किया जाना चाहिए. 


"इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि बलात्कार पीड़ित महिला को भारी आघात/हानि पहुंचाता है, पर एक झूठा मामला भी उसी तरह की हानि पहुंचा सकता है. यह जरुरी है कि अभियुक्तों को झूठे मामलों से बचाया जाये, खासकर उन मामलों में जहाँ बहुत से अभियुक्तों पर मामला हो. यह ध्यान में रखना चाहिए कि मूल रूप से सिद्धांत यह है कि पीड़ित गवाह घटना के दौरान उपस्थित था और सामान्यत: वह वास्तविक अपराधियों के बारे में झूठ नहीं बोलेगा पर यह नहीं माना जा सकता कि ऐसे गवाह का बयान हमेशा सच होगा या फिर बिना बढ़ा-चढ़ा कर दिया गया होगा."


साभार: लाइव लॉ  

अंग्रेजों ने भारत में जाति व्यवस्था का बीज कैसे बोया था? -संजोय चक्रवर्ती

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Friday, June 21, 2019

AFP

भारत की जाति व्यवस्था के बारे में बुनियादी जानकारी के लिए जब आप गूगल करेंगे तो आपको कई वेबसाइटों के सुझाव मिलेंगे, जो अलग-अलग बातों पर ज़ोर देते हैं.

इनमें से जिन तीन प्रमुख बिंदुओं को आप रेखांकित कर पाएंगे, वे हैं:

पहला, हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था का वर्गीकरण चार श्रेणियों में किया गया है, जिनमें सबसे ऊपर हैं ब्राह्मण. ये पुजारी और शिक्षक होते हैं.

इसके बाद क्षत्रिय होते हैं, जो शासक या योद्धा माने जाते हैं. तीसरे स्तर पर वैश्य आते हैं, जो आमतौर पर किसान, व्यापारी और दुकानदार समझे जाते हैं.

और वर्गीकरण की इस सूची में सबसे निचला स्थान दिया गया है शुद्रों को, जिन्हें आमतौर पर मजदूर कहा जाता है.

इन सभी के अलावा "जाति वहिष्कृत" लोगों का एक पांचवां समूह भी है, जिसे अपवित्र काम करने वाला समझा गया और इसे चार श्रेणी वाली जाति व्यवस्था में शामिल नहीं किया गया.

दूसरा, जाति व्यवस्था का यह रूप हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथ (हिंदू क़ानून का स्रोत समझे जाने वाले मनुस्मृति) में लिखे उपदेशों के आधार पर दिया गया है, जो हजारों साल पुराना है और इसमें शादी, व्यवसाय जैसे जीवन के सभी प्रमुख पहलुओं पर उपदेश दिए गए हैं.

तीसरा, जाति आधारित भेदभाव अब गैर-क़ानूनी है और सकारात्मक भेदभाव के लिए कई नीतियां भी हैं.

जाति को आधिकारिक बनाए जाने की कहानी


बीबीसी के एक आलेख में भी इन विचारों को एक पारंपरिक ज्ञान बताया गया है. समस्या यह है कि पारंपरिक ज्ञान में समय के साथ विद्वानों के किए गए शोध और निष्कर्षों के साथ बदलाव नहीं किया गया है.

एक नई किताब, 'The Truth About Us: The Politics of Information from Manu to Modi' में मैंने यह दर्शाया है कि आधुनिक भारत में धर्म और जाति की सामाजिक श्रेणियां कैसे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान विकसित की गई थी.

इसका विकास उस समय किया गया था जब सूचना दुर्लभ थी और इस पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा था.

यह 19वीं शताब्दी की शुरुआत में मनुस्मृति और ऋगवेद जैसे धर्मग्रंथों की मदद से किया गया था.

19वीं शताब्दी के अंत तक इन जाति श्रेणियों को जनगणना की मदद से मान्यता दी गई.

अंग्रेजों ने भारत के स्वदेशी धर्मों की स्वीकृत सूची बनाई, जिसमें हिंदू, सिख और जैन धर्म को शामिल किया गया और उनके ग्रंथों में किए गए दावों के आधार पर धर्मों की सीमाएं और क़ानून तय किए गए.

जाति व्यवस्था की शुरुआत


जिस हिंदू धर्म को आज व्यापक रूप में स्वीकार किया गया है वो वास्तव में एक विचारधारा (सैद्धांतिक या काल्पनिक) थी, जिसे "ब्राह्मणवाद" भी कहा जाता है, जो लिखित रूप (वास्तविक नहीं) में मौजूद है और यह उस छोटे समूह के हितों को स्थापित करता है, जो संस्कृत जानता है.

इसमें संदेह नहीं है कि भारत में धर्म श्रेणियों को उन्हीं या अन्य ग्रंथो की पुनर्व्याख्या करके बहुत अलग तरीके से परिभाषित किया जा सकता है.

कथित चार श्रेणियों वाली जाति व्यवस्था की शुरुआत भीउन्हीं ग्रंथों से किया गया है. वर्गीकरण की यह व्यवस्था सैद्धांतिक थी, जो काग़ज़ों में थी और इसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं था.

19वीं शताब्दी के अंत में की गई पहली जनगणना से इसका शर्मनाक रूप सामने आया था. योजना यह थी कि सभी हिंदूओं को इन चार श्रेणियों में रखा जाए. लेकिन जातिगत पहचान पर लोगों की प्रतिक्रिया के बाद यह औपनिवेशिक या ब्राह्मणवादी सिद्धांत के तहत रखा जाना मुमकिन नहीं हुआ.

1871 में मद्रास सूबे में जनगणना कार्यों की देखरेख करने वाले डब्ल्यूआर कॉर्निश ने लिखा है कि

...जाति की उपत्पति के संबंध में हम हिंदुओं के पवित्र ग्रंथों में दिए गए उपदेशों पर निर्भर नहीं रह सकते हैं. यह अत्यधिक संदिग्ध है कि क्या कभी कोई ऐसा कालखंड था जिसमें हिंदू चार वर्गों में थे.

इसी तरह 1871 में बिहार की जनगणना का नेतृत्व करने वाले नेता और लेखक सीएफ़ मगराथ ने लिखा, "मनु द्वारा बनाई गई चार जातियों के अर्थहीन विभाजन को अब अलग रखा जाना चाहिए."

वास्तव में यह काफी संदेहास्पद है कि अंग्रेजों की परिभाषित की गई जाति व्यवस्था से पहले समाज में जाति का बहुत महत्व था.

आश्चर्यजनक विविधता


अंग्रेजों के कार्यकाल से पहले के लिखित दस्तावेजों में पेशेवर इतिहासकारों और दार्शनिकों ने जाति का ज़िक्र बहुत कम पाया है.

सामाजिक पहचान लगातार बदलती रही थी. "ग़ुलाम", "सेवक" और "व्यापारी"  राजा बने, किसान सैनिक बने, सैनिक किसान बन गए.

एक गांव से दूसरे गांव जाते ही सामाजिक पहचान बदल जाती थी. व्यवस्थित जाति उत्पीड़न और बड़े पैमाने पर इस्लाम में धर्म परिवर्तन के बहुत कम ही प्रमाण मिलते हैं.

जितने भी साक्ष्य मौजूद हैं वे अंग्रेजों के शासन से पहले भारत में सामाजिक पहचान की एक मौलिक पुनर्कल्पना की बात कहते हैं.

जो तस्वीर देखनी चाहिए वह आश्चर्यजनक विविधता की है. अंग्रेजों ने इस पूरी विविधता को धर्म, जाति और जनजाति में बांट दिया.

जनगणना का उपयोग श्रेणियों को सरल बनाने और उसे परिभाषित करने के लिए किया गया था, जिसे अंग्रेज शायद ही समझते थे. इसके लिए उन्होंने सुविधाजनक विचारधारा और बेतुकी कार्यप्रणाली का इस्तेमाल किया था.

अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी में सुविधा के हिसाब से भारत में सामाजिक पहचान की स्थापना की. यह सबकुछ अंग्रेजों ने अपने मतलब के लिए किया ताकि भारत जैसे देश पर वो आसानी से शासन कर सके.

मान्यता और सामाजिक पहचानों की विविधता को एक हद तक सरल बनाने की कोशिश की गई और पूरी तरह से नई श्रेणियां और औहदे बनाए गए.

असमान लोगों को एक साथ कर दिया गया, नई सीमाएं तय कर दी गईं.

जो नई श्रेणियां बनाई गई थीं, वो अपने मूल अधिकारों के लिए एक और मजबूत होने लगीं. ब्रिटिश भारत में धर्म आधारित मतदाता और स्वतंत्र भारत में जाति आधारित आरक्षण ने इन जाति समूहों को और मजबूती प्रदान की.

यह धीरे-धीरे भारत की नियति बन गई. पिछले कुछ दशकों में जो कुछ भी हुआ है उससे यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास का पहला और परिभाषित मसौदा लिखा था.

जनता की कल्पना में इस मसौदे को इतनी गहराई से उकेरा गया है कि अब इसे सच मान लिया गया है. यह अनिवार्य हो गया है कि हम इन पर सवाल उठाना शुरू करें.


(संजोय चक्रवर्ती अमरीकी राज्य पेंसिल्वेनिया के फ़िलाडेल्फ़िया शहर स्थितटेंपल यूनिवर्सिटी के लिबरल आर्ट्स कॉलेज में प्रोफेसर हैं)


स्रोत :बीबीसी 

बचपन के खेल, जो गांव के गलियारों में छूट गए!

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Thursday, June 20, 2019



आधुनिक डिजिटल युग में बच्चों का ज्यादातर समय वीडियो गेम्स के बीच बीतता है। ऐसे में उनसे खो-खो, गिल्ली-डंडा, और पिठ्ठू गरम जैसे खेलों के बारे में पूछना नादानी होगी!

हां! अगर आपकी उम्र 25-30 से ऊपर है, तो आपकी बचपन की यादों में इन खेलों का जिक्र जरूर होगा।

आपने अपनी गर्मियों की छुट्टियों का एक बड़ा हिस्सा इनके नाम किया होगा। या फिर दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियों में तो इन खेलों के बारे में आपने सुना ही होगा।

ऐसे में इन खेलों के बारे में पढ़ना बचपन की उन यादों में लौटने जैसा है-

1. गिल्ली डंडा

यह खेल बचपन के सबसे लोकप्रिय खेलों में से एक है। बच्चों के अंदर इसको लेकर खासा क्रेज होता है। बस इसे खेलने के लिए थोड़ी सी सावधानी बरतने की जरूरत होती है।

क्योंकि, जरा सी चूक किसी की भी आंख फोड़ सकती है!

इसको खेलने के लिए कम से कम दो खिलाड़ियों की आवश्यकता होती है। एक खिलाड़ी डंडे की मदद से गिल्ली के सिरे पर प्रहार कर उसे ज्यादा से ज्यादा दूर तक पहुंचाने की कोशिश करता है। वहीं दूसरे खिलाड़ी को गिल्ली को उसके लास्ट प्वाइंट से सोर्स प्वाइंट तक थ्रो कर पहुंचाना होता है। जगह बदलने पर इसके नियम अलग हो सकते हैं!



2. खो-खो

इस खेल में दो टीमें होती हैं। एक टीम रनिंग करती है और दूसरी चेज। चेज करने वाली टीम के 9 खिलाड़ी सीमित दूरी पर एक-दूसरे के अपोजिट मुंह करके बैठते हैं।

अगली कड़ी में रेफरी की सीटी बजते ही रनिंग टीम के खिलाड़ी एक-एक करके मैदान के अंदर आते हैं, जिन्हें चेज करने वाली टीम के खिलाड़ियों को एक निर्धारित समय के भीतर आउट करना होता है। बारी-बारी से दोनों टीमों को रनिंग करने का मौका मिलता है। इसमें जो ज्यादा खिलाड़ियों को आउट करता है, वह विजेता बनता है।


3. छुपन छुपाई

इसे हाइड एंड सीक नाम से भी जाना जाता है। इसमें एक खिलाड़ी को अपनी आंखें बंद करते हुए निर्धारित गिनती गिननी होती है। इसी दौरान बाकी खिलाड़ियों को सीमित एरिया में छिपना होता है।

खेल की अगली कड़ी में आंखें बंद करने वाले खिलाड़ी को छिपे हुए सभी खिलाड़ियों को ढूंढना होता। अगर वह इसमें सफल होता है, तो सबसे पहले ढूंढ़े गए खिलाड़ी को अपनी आंखें बंद करनी होती है और सेम प्रक्रिया को दोहराना होता है।


4. कंचा (गोली)

यह खेल आज भी गांवों में प्रासंगिक है। इसको खेलने के लिए छोटी-छोटी गोलियों का प्रयोग होता है। ये गोलियां ज्यादातर मार्बल्स की बनी होती है।

इस खेल को खेलने के इतने तरीके हैं कि बताना मुश्किल होता है, कौन सा ज्यादा लोकप्रिय है। फिर भी ज्यादातर एक गोली को अंगुली की मदद से दूसरी पर निशाना लगाने का तरीका ज्यादा पसंद किया जाता है।

खेल का नियम कुछ ऐसा होता है कि गोली पर निशाना लगाने वाले को हर सही निशाने पर दूसरा खिलाड़ी एक गोली देनी होती है। अंत में जो ज्यादा गोलियां जीतता है, वह इस खेल का किंग कहलाता है। 



5.आंख-मिचौली

इस खेल में एक खिलाड़ी की आंखों में पट्टी बांधी जाती है। फिर से उसे बाकी खिलाड़ियों को पकड़ना होता है। पकड़े जाने पर दूसरे खिलाड़ी को इसी प्रक्रिया से गुजरना होता है।

इस गेम को खेलने का एक और दिलचस्प तरीका है। इसके तहत जिस खिलाड़ी की आंखें बंद होती है। उसके सिर पर बाकी खिलाड़ी एक-एक करके थपकी मारते हैं।

ऐसे में अगर वह सबसे पहले मारने वाले को पहचान लेता है, तो पहचाने गए खिलाड़ी की आंखें बंद की जाती है। इस खेल में खिलाड़ियों की संख्या पर प्रतिबंध नहीं होता। 


6. रस्सा-कस्सी

यह खेल दो टीमों के बीच खेला जाता है। इसमें दोनों टीमें एक रस्सी के दोनों सिरों को पकड़कर रखती हैं। दोनों टीमों के बीच जमीन पर एक लाइन खिची होती है। नियम के अनुसार जो टीम ज्यादा जोर रखती है वह दूसरी टीम को अपने पाले पर ले आता है। इसी के साथ वह विजेता बनती है।


7. पिठ्ठू गरम

इस खेल को खेलने के लिए एक गेंद और कुछ समतल पत्थरों की आवश्यकता होती है। इन पत्थरों को एक के ऊपर एक सजाया जाता है। फिर गेंद की मदद से पहली टीम का खिलाड़ी, इन्हें निर्धारित दूरी से गिराने की कोशिश करता है। जैसे ही वह इन पत्थरों को गिराने में सफल होता है। दूसरी टीम के खिलाड़ी उसे गेंद की मदद से चेंज करते हैं।

गेंद पत्थर गिराने वाले खिलाड़ी की टीम के किसी साथी को छुए, इससे पहले उन्हें गिरे हुए समतल पत्थरों को सजाकर पिट्ठू गरम बोलना पड़ता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता तो वह टीम से बाहर हो जाता है।

यह सिलसिला टीम के आखिरी खिलाड़ी तक चलता रहता है। एक बात और इस खेल को कितने भी खिलाड़ी खेल सकते हैं। बस दोनों टीमों में खिलाड़ी की संख्या बराबर रखनी होती है। 



8. रस्सी कूदना

आमतौर पर यह खेल लड़कियों का फेवरेट होता है। मगर इसे लड़के भी खेल सकते हैं। इसे खेलने के कई तरीके हैं। पहले तरीके में आप इसे अकेले एक रस्सी की मदद से खेल सकते हैं।

दूसरे तरीके में तीन खिलाड़ियों की जरूरत पड़ती है। पहले दो खिलाड़ी इसके दोनों सिरों को पकड़ते हैं। वहीं तीसरा लगातार रस्सी के बीच में कूदता है। उसे इसका ख्याल रखना होता है कि रस्सी उसके पैर में न फंसे।

अगर वह इसमें असफल होता है, तो उसे आउट माना जाता है। इसमें जो खिलाड़ी ज्यादा बार जंप करता है। वह इसका विनर माना जाता है। इसकी खेल की खासियत है कि इसे वजन घटाने के लिए भी खेला जाता है।


9. लंगड़ी टांग

रस्सी कूद की तरह इस खेल को भी ज्यादातर लड़किया ही खेलना पसंद करती है। इसमें चॉक या लाल पत्थर की मदद से विशेष आकृति के छोटे-छोटे डिब्बे बनाए जाते हैं। फिर चपटे पत्थर को इन डिब्बों में पैर की मदद से डालना होता है, वो भी बिना लाइन को छुए हुए।

अंत में एक पैर पर खड़े रहकर इसे एक हाथ से बिना लाइन को छुए उठाना पड़ता है। इस खेलने को खेलने के दूसरे तरीके भी हो सकते हैं। डिपेंड करता है कि हम कहां खेल रहे हैं और कितने लोग खेल रहे हैं।




10. म्यूजिकल चेयर

इस खेल को कुर्सी और म्यूजिक की मदद से खेला जाता है। इसमें, जितने चाहे उतने खिलाड़ी भाग ले सकते हैं। खेल का नियम कुछ ऐसा होता है कि म्यूजिक के बजते ही लोगों को कुर्सी के चारों ओर चक्कर लगाना होता है।

फिर जैसे ही म्यूजिक बंद होता है। उन्हें कुर्सी पर बैठना होता। अब चूंकि, हर गाने के साथ एक कुर्सी को हटा दिया जाता है, इसलिए हर चक्कर में एक खिलाड़ी आउट हो जाता है।

आखिर कुर्सी तक जो खिलाड़ी बचता है, वह इस खेल का विजेता कहलाता है।


11. चोर-सिपाही

इसमें खेलने वाली दो टीमों में से एक पुलिस बनती है। दूसरी चोर के रोल में होती है। पुलिस बनने वाली टीम को चोर टीम के खिलाड़ियों को पकड़ना होता है। जैसे ही वह अपने इस काम में सफल हो जाते हैं।




वैसे ही चोर टीम पुलिस बन जाती है और पुलिस टीम चोर बन जाती है।

बचपन की यादों को जीवंत करने वाले ये खेल महज कुछ एक उदाहरण भर है। इस सूची में कई और खेलों के नाम हो सकते हैं। आप किस खेल को सबसे ज्यादा मिस करते हैं। नीचे दिए कमेंट बॉक्स में हमारे साथ जरूर शेयर करें।

मुजफ्फरपुर का एक गांव इसबार इंसेफेलाइटिस से बच गया, कुछ लोगों के काम ने मौत को दी मात

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बिहार का मुजफ्फरपुर। 1 जून की रात से इस शहर में मातम है। हर कुछ घंटे में एक बच्चे की मौत हो रही है। एक बच्चे के शव को अभी एंबुलेंस से घर को भेजा जा रही कि दूसरे बच्चे के परिजनों के रोने-बिलखने की आवाज आने लग रही है। अबतक 120 से ज्यादा बच्चों की जानें जा चुकी हैं। मातम के माहौल के बीच मुजफ्फरपुर के चंद्रहट्टी के लोगों में थोड़ी राहत है। अब सवाल उठता है कि मातम के बीच राहत?

जी हां... मुजफ्फरपुर और उसके आसपास के इलाकों में चमकी बुखार या एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम का कहर हर साल बरपता है। 90 के दशक से शुरू ये सिलसिला हर साल मई-जून में चलता है। बच्चे मरते हैं और फिर जिंदगी लोगों को अपने ढर्रे पर चलाने लगती है। लेकिन, चंद्रहट्टी इस बार इससे बच गया। इसके पीछे कुछ लोगों की अथक मेहनत है।


मुजफ्फरपुर शहर से करीब 10 किलोमीटर दूर बसा है चंद्रहट्टी गांव। यह कुढ़हनी ब्लॉक के अंतर्गत आता है। एक जून को जैसे ही बच्चों की मौत का सिलसिला शुरू हुआ, इसकी खबर गांव तक भी पहुंची। ऐसे में गांव के कुछ जागरुक लोग सतर्क हो गए। उन्होंने चमकी बुखार से लड़ाई लड़ने का निर्णय लिया और प्रयास शुरू कर दिया। इसका नतीजा ये रहा कि जिस गांव में हर साल लोग इस बीमारी से शोक में डूबते थे, वह गांव इस बार राहत की सांस ले रहा है। 

दरअसल, गांव के एक शख्स (वह अपना नाम जाहिर करना नहीं चाहते हैं) ने एक साथी का फेसबुक पोस्ट पढ़ा। इसमें लिखा था कि इस मुद्दे पर सरकार को दोष देने से बेहतर है कि फौरी तौर पर लोगों को ही इस दिशा में काम करना चाहिए। पोस्ट की 'इस लाइन' से ही प्रभावित होकर उन्होंने काम करने का निर्णय लिया। उनका मानना है कि बिहार, यूपी और झारखंड के ग्रामीण क्षेत्र में अभी भी स्वास्थ्य व्यवस्था क्वैक्स डॉक्टरों (जिन्हें झोलाछाप डॉक्टर कहते हैं) पर निर्भर है। वह गांवों में फैले हुए हैं और उनका एक नेटवर्क है। छोटी बीमारी जैसे पेट खराब होने, सर्दी होने या बुखार आने जैसी चीजों के लिए लोग पड़ोस के क्वेक्स डॉक्टरों के पास ही जाते हैं।


पहला चरण

ऐसे में उन्होंने सोचा कि क्वैक्स (झोला छाप डॉक्टरों) को ट्रेंड कर दिया जाए तो वे जानकारी को शहरी गांव के लोवर लेवल के लोगों तक बेहतर तरीके से पहुंचा सकते हैं। हमने बिहार सरकार के एसओपी को देखा। इसमें बीमारी को लेकर 10 पेज का इंस्ट्रक्शन है। जिसमें लिखा है कि बीमारी होने पर क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही अन्य जानकारियां भी हैं। ये सभी हिंदी में है। मैंने इसका प्रिंटआउट अपने प्रिंटर से निकाला और छोटी-छोटी टोली बनाकर आसपास के चार-पांच पंचायतों में उन्हें भेज दिया।




वह बताते हैं कि उनके पास एक लिस्ट है, जिसमें आसपास के गांव के तीन-चार अच्छे क्वैक्स का नाम दिया है। हमने उनसे बात की और उन्हें भी वह लिटरेचर दे दिया। ताकी उनके पास जो ग्रामीण पहुंचे तो वह उन्हें भी यह जानकारी दे दें। यह उनका पहले चरण का प्रयास था।


यहां हमने सवाल किया कि आपने ये पहले चरण का प्रयास कब शुरू किया। इसपर उनका कहना है कि हमें अनुमान था कि पिछले साल की तरह इस बार भी मानसून समय पर आएगा और जिसकी वजह से बीमारी का प्रकोप नहीं फैलेगा। बता दें कि ऐसा माना जा रहा है कि मानसून में देरी की वजह से भी इस बीमारी का प्रकोप बढ़ जाता है। इस बार अनुमान भी लगाया जा रहा था कि मानसून समय पर आएगा।

बिहार के मुज्जफरपुर में चमकी बुखार के खिलाफ जागरूकता अभियान 



उन्होंने आगे कहा कि जैसे ही चमकी बुखार के इस बार भी फैलने की खबर आई, हमने पहले चरण का काम शुरू कर दिया। तारीख में बात करें तो एक जून के बाद हमने काम शुरू किया।

दूसरा चरण

जागरूकता अभियान के लिए उन्होंने गाड़ी घुमाई। इसमें उन लोगों ने बीमारी को लेकर जागरूकता फैलाने का काम शुरू किया। यहां भी हमने थोड़ा सा दिमाग लगाया। पहले गाड़ियां एनाउंस करते हुए आगे बढ़ती जाती थीं, जिससे सभी लोगों तक बात नहीं पहुंच पाती थी। चूंकि ऐसा देखा जा रहा है कि ये बीमारी गरीब तबकों में ज्यादा फैल रही है। खास तौर पर ऐसे इलाके में जहां आर्थिक रूप से कमजोर लोग रहते हैं और गंदगी फैली हुई रहती है, वहां ये बीमारी तेजी से फैल रही है। ऐसे में गाड़ी को उन बस्तियों में रोककर जानकारी को तीन-चार बार दोहरा दिया गया, जिससे उन्हें अच्छी तरह से इसकी जानकारी मिल जाए।

यहां मैंने उनसे सवाल किया कि ये गाड़ी सरकार की तरफ से चलवाई जा रही थी? तो उन्होंने दिलचस्प जवाब दिया:-

उन्होंने कहा, देखिए ऐसा मत समझिए कि हर चीज के लिए पैसे की जरूरत होती है। इन चीजों में बहुत खर्च नहीं होता है। किसी काम को बेवजह का फैशन बना लेने पर खर्च होता है। हमने ऑटो वाले से बात की तो उन्होंने कहा कि सिर्फ पेट्रोल डलवा दीजिए। साउंड सेट वाले से बात की तो उसने पूछा, किस काम के लिए चाहिए? हमने बताया तो उसने कहा कि इसमें पैसा क्या लेंगे। आप लोग समाज के लिए काम कर रहे हैं। बुकलेट भी हम लोगों ने अपने पास से पैसे खर्च कर छपवा दिए। ऐसे हर चीज की व्यवस्था हमने अपने से कर ली। यही बात मैं मुख्य रूप से कह रहा हूं कि कम पैसे में ही हम अपने संसाधनों से ही समाज में इस तरह का काम कर सकते हैं।


वह आगे कहते हैं, हमने गाड़ी को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया और उनसे लोकल लेवल पर बात की। बिल्कुल उनकी भाषा (बज्जिका भाषा) में, जिससे वह ज्यादा से ज्यादा कनेक्ट हो सकें। उन्हें ये भी बताया गया कि लक्षण दिखने पर पहले जिला अस्पताल में न जाएं। पहले ब्लॉक के अस्पताल में जाएं। इससे शहर के अस्पताल में लगने वाली भीड़ भी कम हो जाएगी। 

वह आगे कहते हैं, गांव के लोग शुगर लेवल कम हो जाना या ग्लुकोनडी पिलाना नहीं समझ पाते। उन्हें लगता कि ये कोई बड़ी बात हो रही है। या फिर वे किसी बड़ी बीमारी की चपेट में आ गए हैं। ऐसे में हम लोगों ने उन्हें बताया कि 'चीनी का घोल' बनाकर बच्चों को पिलाएं। ये बात उन्हें अच्छी तरह से समझ में आई। हमने उन्हें कहा कि बच्चों को खुले स्थान पर रखिए। साफ-सुधरा रखिए। ये बातें उन्हें बेहतर तरीके से समझ में आई।




बुकलेट को लेकर वह कहते हैं कि बिहार सरकार ने साल 2014-15 में ही इसे लेकर एक प्रोजेक्ट तैयार किया था। उसी के अंदर का ये 10 पन्ने का मैटर है। हां, हम लोगों ने एक अलग से पम्फलेट तैयार जरूर किया। इसमें एक-एक लाइन का स्ट्रक्शन लिखा। उन्हें आसान भाषा में चीजें समझाने की कोशिश की। इसमें लक्षण, परिजनों को क्या करना चाहिए और बचाव कैसे करें इसपर जोर दिया गया।

उनका मानना है कि ये प्रयास अगले साल ही नहीं हर साल काम में आएगा। हम गर्मी की शुरुआत से ही इसका प्रचार-प्रसार करने का प्रयास करेंगे। हमें मौत का इंतजार नहीं करना चाहिए, पहले से ही जागरूता फैला देनी चाहिए। इससे हमें जरूर फायदा मिलेगा। 



नोट: गांव में काम करने वाले शख्स ने अपना नाम या अपने साथियों का नाम देने से इनकार कर दिया। उनका मानना है कि चार-पांच लोगों का नाम दे-देने के बाद ऐसे में बहुत सारे लोग हैं जो पर्दे के पीछे से काम कर रहे हैं तो उनके मन में निराशा की भावना आ सकती है। वे सोचेंगे कि देखिए मेरा नाम नहीं आया। इससे अच्छा है कि इन चीजों से बचा जाए। किसी का नाम आए उससे ज्यादा जरूरी है कि चीजें बेहतर हों।


सौजन्य : इंडिया टाइम्स 

अपनी अपनी बीमारी -हरिशंकर परसाई

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Tuesday, June 18, 2019



हम उनके पास चंदा माँगने गए थे। चंदे के पुराने अभ्यासी का चेहरा बोलता है। वे हमें भाँप गए। हम भी उन्हें भाँप गए। चंदा माँगनेवाले और देनेवाले एक-दूसरे के शरीर की गंध बखूबी पहचानते हैं। लेनेवाला गंध से जान लेता है कि यह देगा या नहीं। देनेवाला भी माँगनेवाले के शरीर की गंध से समझ लेता है कि यह बिना लिए टल जाएगा या नहीं। हमें बैठते ही समझ में आ गया कि ये नहीं देंगे। वे भी शायद समझ गए कि ये टल जाएँगे। फिर भी हम दोनों पक्षों को अपना कर्तव्य तो निभाना ही था। हमने प्रार्थना की तो वे बोले - आपको चंदे की पड़ी है, हम तो टैक्सों के मारे मर रहे हैं। सोचा, यह टैक्स की बीमारी कैसी होती है। बीमारियाँ बहुत देखी हैं - निमोनिया, कालरा, कैंसर; जिनसे लोग मरते हैं। मगर यह टैक्स की कैसी बीमारी है जिससे वे मर रहे थे! वे पूरी तरह से स्वस्थ और प्रसन्न थे। तो क्या इस बीमारी में मजा आता है ? यह अच्छी लगती है जिससे बीमार तगड़ा हो जाता है। इस बीमारी से मरने में कैसा लगता होगा ?

अजीब रोग है यह। चिकित्सा-विज्ञान में इसका कोई इलाज नहीं है। बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाइए और कहिए - यह आदमी टैक्स से मर रहा है। इसके प्राण बचा लीजिए। वह कहेगा - इसका हमारे पास कोई इलाज नहीं है। लेकिन इसके भी इलाज करनेवाले होते हैं, मगर वे एलोपैथी या होमियोपैथी पढ़े नहीं होते। इसकी चिकित्सा पद्धति अलग है। इस देश में कुछ लोग टैक्स की बीमारी से मरते हैं और काफी लोग भुखमरी से।

टैक्स की बीमारी की विशेषता यह है कि जिसे लग जाए वह कहता है - हाय, हम टैक्स से मर रहे हैं। और जिसे न लगे वह कहता है - हाय, हमें टैक्स की बीमारी ही नहीं लगती। कितने लोग हैं कि जिनकी महत्त्वाकांक्षा होती है कि टैक्स की बीमारी से मरें, पर मर जाते हैं निमोनिया से। हमें उन पर दया आई। सोचा, कहें कि प्रापर्टी समेत यह बीमारी हमें दे दीजिए। पर वे नहीं देते। यह कमबख्त बीमारी ही ऐसी है कि जिसे लग जाए, उसे प्यारी हो जाती है।

मुझे उनसे ईर्ष्या हुई। मैं उन जैसा ही बीमार होना चाहता हूँ। उनकी तरह ही मरना चाहता हूँ। कितना अच्छा होता अगर शोक-समाचार यों छपता - बड़ी प्रसन्नता की बात है कि हिंदी के व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई टैक्स की बीमारी से मर गए। वे हिंदी के प्रथम लेखक हैं जो इस बीमारी से मरे। इस घटना से समस्त हिंदी संसार गौरवान्वित है। आशा है आगे भी लेखक इसी बीमारी से मरेंगे ! मगर अपने भाग्य में यह कहाँ ? अपने भाग्य में तो टुच्ची बीमारियों से मरना लिखा है।

उनका दुख देखकर मैं सोचता हूँ, दुख भी कैसे-कैसे होते हैं। अपना-अपना दुख अलग होता है। उनका दुख था कि टैक्स मारे डाल रहे हैं। अपना दुख है कि प्रापर्टी नहीं है जिससे अपने को भी टैक्स से मरने का सौभाग्य प्राप्त हो। हम कुल 50 रु. चंदा न मिलने के दुख में मरे जा रहे थे।

मेरे पास एक आदमी आता था, जो दूसरों की बेईमानी की बीमारी से मरा जाता था। अपनी बेईमानी प्राणघातक नहीं होती, बल्कि संयम से साधी जाए तो स्वास्थ्यवर्द्धक होती है। कई पतिव्रताएँ दूसरी औरतों के कुलटापन की बीमारी से परेशान रहती हैं। वह आदर्श प्रेमी आदमी था। गांधीजी के नाम से चलनेवाले किसी प्रतिष्ठान में काम करता था। मेरे पास घंटो बैठता और बताता कि वहाँ कैसी बेईमानी चल रही है। कहता, युवावस्था में मैंने अपने को समर्पित कर दिया था। किस आशा से इस संस्था में गया और क्या देख रहा हूँ। मैंने कहा - भैया, युवावस्था में जिनने समर्पित कर दिया वे सब रो रहे हैं। फिर तुम आदर्श लेकर गए ही क्यों ? गांधीजी दुकान खोलने का आदेश तो मरते-मरते दे नहीं गए थे। मैं समझ गया, उसके कष्ट को। गांधीजी का नाम प्रतिष्ठान में जुड़ा होने के कारण वह बेईमानी नहीं कर पाता था और दूसरों की बेईमानी से बीमार था। अगर प्रतिष्ठान का नाम कुछ और हो जाता तो वह भी औरों जैसा करता और स्वस्थ रहता। मगर गांधीजी ने उसकी जिंदगी बरबाद की थी। गांधीजी विनोबा जैसों की जिंदगी बरबाद कर गए। बड़े-बड़े दुख हैं ! मैं बैठा हूँ। मेरे साथ 2-3 बंधु बैठे हैं। मैं दुखी हूँ। मेरा दुख यह है कि मुझे बिजली का 40 रु. का बिल जमा करना है और मेरे पास इतने रुपए नहीं हैं।

तभी एक बंधु अपना दुख बताने लगता है। उसने 8 कमरों का मकान बनाने की योजना बनाई थी। 6 कमरे बन चुके हैं। 2 के लिए पैसे की तंगी आ गई है। वह बहुत-बहुत दुखी है। वह अपने दुख का वर्णन करता है। मैं प्रभावित नहीं होता। मगर उसका दुख कितना विकट है कि मकान को 6 कमरों का नहीं रख सकता। मुझे उसके दुख से दुखी होना चाहिए, पर नहीं हो पाता। मेरे मन में बिजली के बिल के 40 रु. का खटका लगा है।

दूसरे बंधु पुस्तक-विक्रेता हैं। पिछले साल 50 हजार की किताबें पुस्तकालयों को बेची थीं। इस साल 40 हजार की बिकीं। कहते हैं - बड़ी मुश्किल है। सिर्फ 40 हजार की किताबें इस साल बिकीं। ऐसे में कैसे चलेगा ? वे चाहते हैं, मैं दुखी हो जाऊँ, पर मैं नहीं होता। इनके पास मैंने अपनी 100 किताबें रख दी थीं। वे बिक गईं। मगर जब मैं पैसे माँगता हूँ, तो वे ऐसे हँसने लगते हैं जैसे मैं हास्यरस पैदा कर रहा हूँ। बड़ी मुसीबत है व्यंग्यकार की। वह अपने पैसे माँगे, तो उसे भी व्यंग्य-विनोद में शामिल कर लिया जाता है। मैं उनके दुख से दुखी नहीं होता।

मेरे मन में बिजली कटने का खटका लगा हुआ है। तीसरे बंधु की रोटरी मशीन आ गई। अब मोनो मशीन आने में कठिनाई आ गई है। वे दुखी हैं। मैं फिर दुखी नहीं होता। अंतत: मुझे लगता है कि अपने बिजली के बिल को भूलकर मुझे इन सबके दुख में दुखी हो जाना चाहिए। मैं दुखी हो जाता हूँ। कहता हूँ - क्या ट्रेजडी है मनुष्य-जीवन की कि मकान कुल 6 कमरों का रह जाता है। और कैसी निर्दय यह दुनिया है कि सिर्फ 40 हजार की किताबें खरीदती है। कैसा बुरा वक्त आ गया है कि मोनो मशीन ही नहीं आ रही है।

वे तीनों प्रसन्न हैं कि मैं उनके दुःखों से आखिर दुखी हो ही गया।
तरह-तरह के संघर्ष में तरह-तरह के दुख हैं। एक जीवित रहने का संघर्ष है और एक संपन्नता का संघर्ष है। एक न्यूनतम जीवन-स्तर न कर पाने का दुख है, एक पर्याप्त संपन्नता न होने का दुख है। ऐसे में कोई अपने टुच्चे दुखों को लेकर कैसे बैठे ?
मेरे मन में फिर वही लालसा उठती है कि वे सज्जन प्रापर्टी समेत अपनी टैक्सों की बीमारी मुझे दे दें और मैं उससे मर जाऊँ। मगर वे मुझे यह चांस नहीं देंगे। न वे प्रापर्टी छोड़ेंगे, न बीमारी, और मुझे अंततः किसी ओछी बीमारी से ही मरना होगा।
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