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नदी कथा -कुमार मंगलम

Sunday, June 30, 2019

/ by Satyagrahi


दिन ढ़लते 
शाम
तट पर पानी में पैर डाले
नदी किनारे 
रेत पर 
औंधा पड़ा है


नदी किनारे 
रेत के खूंटे में
बजड़ा बंधा है


नदी के
प्रवाह में प्रतिबिम्बित
एक बजड़ा और है


यूँ नदी ने
बजड़े का चादर ओढ़ रखा है


नदी के बीच धारा में
लौटते सूर्य की छाया


नदी के भाल को
सिंदूर तिलकित कर दिया है


यूँ नदी 
सुहागन हो गयी है।


नदी के तीर
एक शव जल रहा है


अग्नि शिखा
जल में 
शीतलता पा रही है।


सूर्योदय के वक्त
पश्चिम से
पूर्व की ओर देखता हूँ


नदी के गर्भ से
सूर्य बाहर आ रहा है।


नदी किनारे
एक लड़की
जल में पैर डाले


बाल खोले
उदास हो 
जल से अठखेलियाँ खेलती है


यूँ नदी से 
हालचाल पूछती है।


बीच धारा में
नाव
नहीं ठहरती 


नदी के बीच में
भँवर है


नदी
को देखा आज नंगा


पानी उसका 
कोई पी गया है


नदी अपने रेत में
अपने को खोजती


एक बुल्डोजर
उस रेत को ट्रक में भर कर 


नदी को शहर में 
पहुंचा रहा है।


नदी की अनगिनत
यादें हैं मन में


नदी अपने प्रवाह से
उदासी हर लेती है


उसकी उदासी को
हम नहीं हरते


शाम ढले
उल्लसित मन से
गया नदी से मिलने नदी तट


नदी मिली नहीं
शहर चुप था
उसे अपने पड़ोसी की
खबर नहीं थी


नदी में जल था
प्रवाह नहीं था


नदी किनारे लोग थे
शोर था
चमकीला प्रकाश था


नदी नहीं थी


लौटता कि
आखिरी साँस लेती
नदी सिसकती मिल गयी


उसने कहा
यह आखिरी मुलाक़ात हमारी


दर्ज कर लो
तुम्हारे प्यास से नहीं
तुम्हारे भूख से मर रही हूं


यूँ एक नदी मर गयी


और मेरी नदी कथा
समाप्त हुई


भारी मन से
प्यासा ही 
घर लौट आया।

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