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क्या बढ़ता तापमान किसी अंत की शुरूआत है?

Wednesday, June 12, 2019

/ by Satyagrahi


स्टीफन हॉकिन्स ने कुछ वर्ष पूर्व चिंता जताते हुए कहा था कि इंसानों के पास इस पृथ्वी पर कुछ ही वर्ष शेष बचे है।उनका यह एक इशारा था और यह इशारा करने वाले वे अकेले नहीं है एक क़तार है एसे बुद्धिजीवीयोें की जो आज भी यही कह रहे है कि हमारी प्रगति की रफ़्तार ने हमें प्राकृतिक संतुलन के लिय ख़तरा बना दिया है। जब पैरिस समझौते से अमरीका ने खुद को अलग किया तो बीबीसी के साथ एक साक्षात्कार में स्टीफ़न हॉकिन्स ने कहा हम उस दौर में प्रवेश कर रहे है जहाँ से वापिस निकलना मानव सभ्यता के लिये शायद संभव ना हो और धरती भी विनस की तरह हो जाये।




पेरिस समझौता एक अहम समझौता था जब सरकारें इस बात को लेकर पुरी तरह आश्वस्त हो चुकी थी कि अगर इसी रफ़्तार से कार्बन की मात्रा बड़ती रही तो 2100 तक पहुँचते पहुँचते धरती का तापमान औसतन 4 से 5 डिग्री तक बड़ जायेगा और इसका मतलब होगा वो विनाश का हर वैज्ञानिक अनुमान सही होगा। पुरी दुनिया के प्रमुख विज्ञानीक, मिडीया व स्कूल विश्वविद्यालय तथा तमाम पर्यावरण प्रेमी चिंतित लोगों के दवाब के सामने झुकते हुएे पैरिस कलाईमेट समिट आयोजित हुई।जिसमें प्रमुख 186 देशों ने भाग लिया क्योंकि अनुमान का वैज्ञानिक आधार, पिघल रही बर्फ़, बैमोसमी बारिश, सुखा एक आम इंसान को भी सोचने को मजबूर करते है की हम किस तरफ़ जा रहे है और वो सरकारें जिनके पास पुरी जानकारियाँ है जिसे अकसर आम लोगों से छुपाया जाता है और दुनिया की सरकारों का हरकत में आना यही दर्शाता है की मामला गंभीर है।सभी देश इस बात पर सहमत हुएे की संयुक्त प्रयासों से वातावरण में बड़ रहे कार्बन को नियंत्रित कर 2100 तक तापमान को औसत 2 डिग्री तक रखने का पहला प्रयास किया जायेगा। कई देशों ने अपने संकल्प में यहाँ तक कहा कि 2040 वे पुरी तरह इलेक्ट्रिक वाहन पर निर्भर हो जायेंगे व कोयले का उपयोग बंद कर देंगे जिसमें फ़्रांस प्रमुख था।इस समझौते को कार्बन कट के नाम से जाना गया। भारत सरकार ने भी सौर ऊर्जा के रास्ते जाने का संकल्प लिया। समझोते के बाद दुनिया ने राहत की साहस ली और इस समझोते को मानव इतिहास की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि की तरह देखा गया। लेकिन आज आलम यह है की समझौता काग़ज़ों की तरह बिखर चुका है तो क्या ख़तरा टल चुका है?



दुनिया के अधिकतर देशों का विकास GDP अधारीत है,जिसमें जंगलों को लकड़ी खनिज के लिये काटा जा रहा है, जंगल कटेगा तो लकड़ी मिलेगी पैसे आयेगा,खनिज से रोज़गार और अर्थ व्यवस्था को आगे बड़ाने का ईंधन मिलेगा। हर स्वार्थ यही सोचता है की वो सारा सुधार का भार ख़ुद पर क्यों ले जैसे चलता है चलने दो। अमरीका ने यही बहाना बनाया और ख़ुद को पैरिस समझौते से अलग कर लिया। अगर हम अपने देश की बात करें तो स्थित हमारे सामने है चाहे हम लाख अनदेखा कर लें। सभी एजेंसियों जैसे नासा के अनुमानों की औसत अगर हम लगाये तो पिछले 100 साल में धरती का तापमान औसतन 0.6 डिग्री बड़ा है, वही भारत का औसत तापमान 0.8 डिग्री के औसत से बड़ा है जिसे हम गरमियों के कुछ दिन तो महसूस करते है लेकिन जल्द ही भूल जाते है। असल वजाह में जाने के बजाये पहले तो हम इसे नकारते रहे लेकिन अब एक नया ट्रेड शुरू हुआ है जहाँ एक टीवी चैनल कहता है पाकिस्तान हमारी तरफ़ गरम हवायें भेज रहा है और नुक्कड़ों के वाद विवाद इसे आगे बड़ा रहे है। लेकिन अगर यही अेंकर सामान्य भाषा में लोगों को बताये की गलोबल वार्मिंग जिसे भूमंडलीय तापमान मे वृद्धि कहा जाता है पृथ्वी पर आक्सीजन की मात्रा ज्यादा होनी चाहिये परन्तु बढ़ते प्रदुषण व कम होते पेड़ों के कारण कार्बनडाईआक्साइड की मात्रा बढ़ रही है जो कि तापमान बढ़ा रही है भारत का नहीं पुरी दुनिया का तो शायद मानवता का कुछ भला हो।

अगर हम असल वजाहो में जाये तो इसके पिछे जंगलों के ग़ायब होने से लेकर कारख़ानों का धुआँ वाहनों में बेतहाशा बडोतरी जैसे कारण है। लेकिन जब आप यही कारण गिनायेंगे तो झट से आपको टोक कर कह दिया जायेगा,तो क्या ये सब बंद करदें तो आपकी बहस भी वही समाप्त हो जायेगी। हमें इन कारणों के असल कारणों में जाना होगा कैसे सरकारों ने कारख़ाने लगाने से पहले लिये जाने वाली पर्यावरण क्लीयरेंस ही समाप्त कर दी, वाहनों के मामले में तो हम सब बराबर के हिस्सेदार है जब झट से गाड़ी में बैठे बिठाये पी.यू.सी का सर्टिफ़िकेट ले लेते है। किस तरह हमारी सरकारें कुछ पूँजीपतियों को पुरा जंगल बेच देती है और एसे भुमि अधिग्रहण बिल लाती है जिससे जंगलों में रहने वाले,जंगलों को समझने वाले लोगों को झट से जंगल से बाहर फेंक दिया जाता है और दिखाया जाता है जैसे जंगल में कभी कोई रहता ही नहीं था,ताकि कारोबारी बेरोकटोक जंगल उजाड़ सके।आजकल एक ख़ास क़िस्म के अध्यातमिक पुंजीपतियों का उभार हुआ है जो पहले अध्यात्म से लोगों को जोड़ते है उन्हें वोट में परिवर्तित करते है और फिर चहेती सरकारों से जंगल नदियों पर क़ानूनी तरीक़े से क़ब्ज़ा करते है। यही लालच मानवता,पशु-पक्षीयों को एक भयानक सकट में ले जा चुका है। नदियों का घीरे धीरे ख़त्म होना। कारख़ानों शहरों का ज़हरीला पानी सरकारी मिलीभगत से नदियों में डालना, सब तारे आपसे में जुड़ती है जिसे हम जितना अनदेखा-नकारते रहेंगे यह स्थिति और भयंकर होती जायेगी।



ग्लोबल वार्मिंग से भविष्य में होने वाले प्रभावों पर लगभग दुनिया के वैज्ञानिक एक मत है, हाँ अभी हमारे ज्योतिष ज्ञानियों के अनुमान बाक़ी है। बड़ता तापमान ग्लेशियरों को पिघलायेगा जिससे समुद्र का दायरा कई बड़े शहरों व छोटे देशों को जलमग्न कर देगा। मैदानी क्षेत्र में गरमी की चपेट बड़ेगी, तापमान बढने से जलवाष्प की मात्रा भी बड़ेगी जिससे होने वाली बारिश पर भी असर होगा, बाढ व सुखे का अनुपात बडेगा। वैज्ञानिक मानते है कि कुछ हद तक तो शुरूआत में चीज़ें काफ़ी संतुलित रहेगी क्योंकि यह एक जीवंत सिस्टम है जो ख़ुद को संतुलन में रखने की भरपूर कोशिश करेगा । लेकिन ख़तरा तब बड जायेगा जब संतुलन टूट जायेगा और जब तक चीज़ें फिर से संतुलित होगी तब तक मानवजाति अपना संतुलन खो देगी।



लेखक: रमन रंधावा

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