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अयोध्या विवाद में हिंदुओं की जीत बनाम मुसलमानों को इंसाफ़

Tuesday, June 4, 2019

/ by Satyagrahi


विजय और न्याय दोनों अलग शब्द हैं जिनके अर्थ भी अलग हैं.

ये दोनों शब्द दो मुकदमों से जुड़े हैं, एक है अयोध्या की विवादित ज़मीन के मालिकाना हक़ का मुकदमा और दूसरा है बाबरी मस्जिद गिराये जाने की आपराधिक साज़िश का.

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के 25 साल पूरे हो रहे हैं, अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मालिकाना हक़ के मुकदमे की सुनवाई नियमित रूप से की जाएगी जबकि आपराधिक साज़िश का मुकदमा लखनऊ में अपनी गति से चल रहा है.

सुप्रीम कोर्ट जब फ़ैसला करेगा तब करेगा, लेकिन सत्ताधारी भाजपा के 'परम पूज्य' अभिभावक, आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत फ़ैसला सुना चुके हैं कि मंदिर वहीं बनेगा और वहाँ कुछ और नहीं हो सकता.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एएम अहमदी ने कहा है कि मोहन भागवत अदालत की प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं.

कुछ शिया नेताओं ने कहा कि अयोध्या में मंदिर बने और लखनऊ में मस्जिद. दूसरे मुसलमान नेता, ख़ास तौर सुन्नी रहनुमा उनके इन बयानों को प्रायोजित बता रहे हैं. 'आर्ट ऑफ़ लिविंग' वाले बाबा भी 'आर्ट ऑफ़ मिडियेटिंग' दिखा ही चुके हैं.

बात इतनी-सी है कि अयोध्या का मामला जितना धार्मिक है उससे कहीं अधिक राजनीतिक है. इस मुद्दे की आँच तेज़ करके लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा को 2 सीटों वाली पार्टी से एक शक्तिशाली राष्ट्रीय राजनीतिक दल बनाया. वे भी मान चुके हैं कि अयोध्या आंदोलन धार्मिक नहीं, राजनीतिक था.

हिंदू वोटरों से किया गया वादा अधूरा

भाजपा का हिंदू वोटरों से किया गया पुराना वादा अधूरा है कि अगर पूर्ण बहुमत वाली सरकार आई तो राम मंदिर बनवाएगी, मोदी सरकार के पहले तीन साल में विकास के नारों के बाद, अब एक बार फिर हिंदुत्व की धार तेज़ की जा रही है.

मस्जिद गिराये जाने के बाद उस वक़्त के प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने उसी जगह पर मस्जिद बनाने की बात कही थी, आज उस वादे का कोई नामलेवा नहीं बचा है, न कांग्रेस में और न ही किसी दूसरी पार्टी में.

सुप्रीम कोर्ट में मालिकाना हक़ के मुकदमे की नियमित सुनवाई गुजरात के चुनाव से ठीक पहले शुरू हो रही है, और कोई इससे इनकार नहीं करता कि ये मामला किसी-न-किसी रूप में 2019 के चुनाव में भी गर्म रहेगा. शायद सबसे ज्यादा गर्म.

रिश्तों में बड़ा 'टर्निंग प्वाइंट'

इस पर बहस या शक की गुंजाइश नहीं है कि आज़ादी के बाद से लोकतांत्रिक भारत में हिंदू-मुसलमान रिश्तों में बाबरी विध्वंस से बड़ा कोई 'टर्निंग प्वाइंट' नहीं है, ज्यादातर मुसलमान इसे दबंग हिंदुत्व से मिले एक गहरे ज़ख़्म की तरह देखते हैं जो अब भी रिस रहा है.

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने अदालत से वादा किया था कि उनकी सरकार बाबरी मस्जिद की रक्षा करेगी, गांधी-नेहरू ने मुसलमानों से वादा किया था कि वे भारत में बराबरी के साथ रह सकेंगे, ये दोनों वादे मस्जिद के मलबे तले दबे पड़े हैं.

देश ऐेसे मकाम पर खड़ा है जहाँ मुसलमानों को अदालत से इंसाफ़ की आस है जबकि हिंदू जनभावना विजय की प्रतीक्षा कर रही है. मुसलमानों को लगता है कि सरकार न सही, अदालत तो सेकुलर है, उनकी इस धारणा के कायम रहने या टूटने का असर छह दिसंबर की घटना से कम निर्णायक नहीं होगा.

हिंदुत्ववादी जनभावना का रुख़ बिल्कुल साफ़ है, मंदिर समझौते से बने या अदालत के फ़ैसले से या फिर वैसे ही बने जैसे बाबरी मस्जिद टूटी थी, लेकिन मंदिर वहीं बनाएँगे.

आज के हालात

आज देश के हालात छह दिसंबर 1992 से बहुत अलग हैं, विवादित स्थल पर राममंदिर बनाने को वचनबद्ध केंद्र सरकार है, उत्तर प्रदेश में गोरखनाथ मठ के महंत योगी आदित्यनाथ की सरकार है. जब एक फ़िल्म पर ऐसा तूफ़ान खड़ा किया जा सकता है, तो मंदिर के लिए जो उन्माद पैदा होगा वो कैसा होगा, कल्पना की जा सकती है.

इसी साल मार्च महीने में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर ने कहा था कि इस मामले को आपसी बातचीत से सुलझा लेना चाहिए. भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि वे बातचीत की मध्यस्थता कर सकते हैं, उनके इस सुझाव का लालकृष्ण आडवाणी सहित भाजपा के कई नेताओं ने स्वागत किया था.

तब भी क़ानून और न्याय की समझ रखने वाले लोगों ने ये सवाल पूछा था कि जब आपराधिक मामले में न्याय नहीं हुआ है तो समझौता कैसे हो सकता है. लालकृष्ण आडवाणी उस मामले के अभियुक्तों में से एक हैं. उनके राष्ट्रपति न बन पाने की एक वजह ये भी बताई जाती है.

आंध्र प्रदेश हाइकोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस मनमोहन सिंह लिब्रहान ने लंबी तफ़्तीश के बाद 2009 में रिपोर्ट सौंपी थी कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस गहरी साज़िश थी जिसमें आरएसएसएस-बीजेपी से जुड़े कई शीर्ष नेता शामिल थे.

'न्याय के बिना शांति संभव नहीं है.'

'इंडियन एक्सप्रेस' से बातचीत में जस्टिस लिब्रहान ने कहा है कि मालिकाना हक़ का फ़ैसला पहले करना ठीक नहीं होगा, इससे आपराधिक मामले पर असर पड़ेगा. उन्होंने कहा कि पहले आपराधिक मामले का निबटारा इसलिए भी किया जाना चाहिए क्योंकि वो लोग अभी जीवित हैं जिन्होंने ये अपराध होते देखा है.

जस्टिस मनमोहन सिंह लिब्रहान ने इसी इंटरव्यू में एक बहुत अहम बात कही है, "न्याय व्यवस्था में मुसलमानों का विश्वास बहाल किया जाना चाहिए लेकिन मुश्किल है कि ऐसे नागरिक संगठन भी नहीं हैं जो इसे लेकर सक्रिय हों."

अदालत अपने तरीक़े से अपना काम करेगी, उस पर टीका-टिप्पणी करना मक़सद नहीं है, लेकिन भारत के करोड़ों मुसलमान न्याय व्यवस्था के बारे में क्या महसूस करते हैं ये पूरे देश के लिए चिंता की बात होनी चाहिए या नहीं?

"न्याय के बिना शांति संभव नहीं है." ये बात अमरीका में काले लोगों के हक़ के लिए लड़ने वाले नायक मार्टिन लूथर किंग ने कही थी. उनकी ये बात संसार के हर कोने के लिए सच है.

राजेश प्रियदर्शी

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