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मंगला भाभी अब कभी नहीं लौटेंगी

Wednesday, July 31, 2019

/ by प्रतीक कुमार


वह हमारे घर में 30 सालों से आया करती थीं

मंगला भाभी यही नाम था उनका ? पता नही पर हम भाभी ही कहते थे, पिछले 30 वर्षों से कॉलोनी में आ रही थी। बेहद शालीन, स्वाभिमानी, सौम्य और व्यवहारकुशल कॉलोनी की सड़क पर हमारी की हुई गंदगी की सफाई उनकी जिम्मेदारी थी। जब कॉलोनी में घर बढ़े और सड़कें पक्की हुई तो तीन-चार और महिलाएं साथ आने लगीं। रोज़ सुबह आती थीं और सामान्य बातचीत, हालचाल के बाद काम करती थीं।

घर के बाहर जगह है और गुलमोहर का पेड़ भी, तो सब लोग यही बैठती थीं और खाना भी खा लेती थीं। मेरे यहां ही अधिकार से पीने का पानी या भैया चाय बना दो आज सर्दी बहुत है या आज नाश्ता करवा दो पर कही भी दुराग्रह नहीं। एकदम जैसे घर की कोई सदस्य हो। लाड़ और अधिकार से कहती थी और हम भी घर की ही मानते थे उन्हें।

पिछले 30 वर्षों में मैं बड़ा हुआ और वो थोड़ी बूढ़ी। अपने घर परिवार, सुख-दुख, नगर निगम के किस्से, शुगर की जांच और मात्रा नियमित बताती और मुझे भी डांट लगाती कि क्यों इतना आम खाते हो। क्या दवा ले रहे हो सुबह जल्दी उठ जाता था। मां और मैं- तो तीन फीकी चाय बनती थी। मां की, मेरी और मंगला भाभी की।


हमारी स्मृतियों में मंगला भाभी हमारे घर का हिस्सा थीं।

कभी याद ही नहीं रहा उनका कप कौन सा था और जग- ग्लास कौन सा। शुरू में वो कहती कि कप यही धोकर बाहर रख दूंगी। कल इसी में दे देना पर मुझे समझ नहीं आता कि ऐसा क्यों। कालांतर में उन्हें बताया कि मैं और मां यह सब नहीं मानते फिर कभी कप ना रखा गया विशेष, ना ग्लास।

वे घर परिवार सफाई में लगीं महिलाओं के दर्द, दारोगाओं की मक्कारी और कचरा गाड़ीवालों के किस्से सुनाती रहती थी। रोज़ सुबह आवाज देकर बातचीत करती थी और चाय का दौर। कभी नाश्ते का दौर साथ होता था। मां के 2008 में जाने के बाद उन्होंने धीरज बंधाया था और घर की देखभाल में उनका ध्यान बढ़ गया था।

इधर छोटे भाई की मृत्यु के बाद 2014 से वे भाई के बेटे पर भी निगाह रखती थीं और बड़े वात्सल्य भाव से ओजस-ओजस करती थी कि कॉलेज क्यों नही गया, रिजल्ट का क्या हुआ, गाड़ी क्यों तेज़ चलाता है आदि।

घर में ताला रहता तो दोपहर तीन बजे तक ठीक दरवाजे के पास अंदर गुलमोहर की छांव में बैठी रहती थी। इधर शुगर ज्यादा बढ़ने लगी थी। तनाव भी बहुत था। दस दिन पहले कह रही थी कि देवास सफाई में दसवें स्थान पर आया। सरकार ने सबको ₹5000 एक्स्ट्रा दिए हैं। बहुत खुश थी कि इस बार तनख्वाह बढ़कर मिली, लेकिन जानें तनाव बना हुआ था।

मंगला भाभी की बिटिया ने अपनी पसंद से राजस्थान के किसी युवा को चुना था जीवन साथी के रूप में।यहां देवास में सबने मिलकर उसकी शादी कर दी थी। लड़के के परिजन ख़ुश नही थे पर दोनो मियां बीबी ख़ुश थे।

देवास में ही उनका दामाद कुछ कर रहा था। पिछले दिनों वह अपनी गाड़ी लेने घर गया राजस्थान और थोड़े दिन बाद मंगला भाभी को "वॉट्सएप पर सूचना मिली कि वह डूबकर मर गया" आगे- पीछे और कोई सूचना नहीं। पता चला बिटिया गर्भवती है उनकी। इन दिनों और यह हादसा हुआ कि वे बेटी को हिम्मत देती थी कि मैं हूं चिंता मत कर, पर अपना दुख किसी को बांटती नहीं।

आखिर तनाव बढ़ा; दिल -दिमाग से होता हुआ शरीर पर आ गया और दस दिन पहले लकवा मार गया और पिछले मंगलवार को दो अटैक एक साथ आए। एक और सूचना की मंगला भाभी का किस्सा खत्म। मंगला भाभी नही रहीं।

यह सूचना मिली दूसरी महिलाओं से जो एक दिन छुट्टी मारकर काम पर लौटीं। बोली- बहुत तनाव में थी। सबको याद कर रही थी। बेटी को भी हिम्मत दिलाती रहीं, पर खुद ही हार गईं। मां की बरसी पर मैं हमेशा उन्हें अच्छी साड़ी खरीदने के लिए पर्याप्त रुपये देता था। इस 26 जुलाई को वो आई ही नहीं। इंतज़ार था। रुपये रखें है पर अभी भी पर मंगला भाभी नहीं है बस। ना अब कभी आएंगी, मां और मंगला भाभी को जुलाई ने लील लिया।

जुलाई को कभी मुआफ़ नही करुंगा मैं कौन मरा, किसने - किसको मारा, मेरे पास सवालों का जवाब नहीं पर एक बेटी जाति के नाम पर जीवन भर भुगतेगी, एक भली और प्रशस्त महिला को मरना पड़ा जबकि वो पूरी कॉलोनी में दो बार सफाई करती थी।

मैं कह सकता हूं कि इतना वर्क आउट करने के बाद शुगर की मजाल नहीं कि जान ले ले। पर समाज, रीतियां और जाति ने या यूं कहूं कि ऑनर किलिंग वाले फैशन के इस दौर ने दो जान ले लीं। दामाद मरा या नहीं इसका मेरे पास प्रमाण नहीं पर मंगला भाभी का देहावसान हो गया यह सच है। क्या लिखूं नमन, श्रद्धांजलि या RIP मंगला भाभी हम सब एक कुंठित और बीमार समाज में जिंदा हैं।

जितनी जल्दी हो सकें इसे बदल दो और यह हमें ही करना होगा। सरकारें तो कुछ नही करेंगी। सड़कें सूनी है और गुलमोहर का पेड़ उस हंसी के इंतज़ार में है जो सूनी दोपहरों को गुंजायमान कर देती थी। चौकस निगाहें अब नहीं है। आठ दिनों से चाय अकेला पी रहा सुबह की, लगा था कि वे आ जाएंगी कोई कागज़ लेकर कि देखना भैया ये क्या आदेश है अब हमारे लिए। 








संदीप नाईक

देवास मप्र में रहते है, 34 वर्ष विभिन्न प्रकार के कामों और नौकरियों को करके इन दिनों फ्री लांस काम करते है. अंग्रेज़ी साहित्य और समाज कार्य मे दीक्षित संदीप का लेखन से गहरा सरोकार है, एक कहानी संकलन " नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएँ" आई है जिसे हिंदी के प्रतिष्ठित वागीश्वरी सम्मान से नवाज़ा गया है , इसके अतिरिक्त देश की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में सौ से ज़्यादा कविताएं , 150 से ज्यादा आलेख, पुस्तक समीक्षाएं और ज्वलंत विषयों पर शोधपरक लेख प्रकाशित है 

सम्पर्क naiksandi@gmail.com


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